Friday, 7 July 2017

आदिवासी विद्रोह


भारत में ब्रिटिश राज के बाद यहाँ के आदिवासियों के साथ अनेक सशस्त्र संघर्ष हुए। जिनका प्रमुख कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा उनकी विशिष्ट, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं में हस्तक्षेप किया जाना था। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप आदिवासी समुदाय और अंग्रेज सरकार के मध्य १९ वीं सदी में कई छापामार लड़ाइयाँ हुईं। बिपिनचंद्र के अनुसार "भ्रष्टाचार और अत्याचार के हथियारों से लैश औपनिवेशिक शासन ने जब आदिवासियों के इलाकों में घुसपैठ की, तो उनमें घोर असंतोष पैदा होना स्वाभाविक ही था। आमतौर पर आदिवासी शेष समाज से अपने को अलग- अलग रखते थे। लेकिन ब्रिटिश राज उनको पूरी तरह औपनिवेशिक घेरे के भीतर खींच लाया।आदिवासी लोग जो अब तक आंतरिक स्वायत्तता की स्थिति में रहते थे, ब्रिटिश प्रमुख की स्थापना से वह समाप्त हो गयी। यह स्थिति आदिवासियों को स्वीकार न थी और धीरे- धीरे उनके विरोध पनपने लगे।
अंग्रेज प्रशासकों की मान्यता थी कि आदिवासी लोग अपनी सरकारों के अधीन हीन अवस्था में जीवन व्यतीत कर रहे थे, किन्तु आदिवासियों का अपने मुखिया पर पूर्ण विश्वास था। परिणामस्वरूप  १८१७ में चेरो ने और १८१९ में मुंडाओं  ने उन जमींदारों के समर्थन में विद्रोह कर दिया, जिन्होंने अंग्रेजों ने शक्तियाँ हस्तगत कर ली थीं। अंग्रेजो ने प्रशासनिक एवं सामरिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आदिवासी क्षेत्रों में पुलिस थाने स्थापित किये, सड़कें बनवाईं, सैनिक छावनियाँ स्थापित कीं और उन लोगों को कंपनी कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य किया गया। सरकार द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में नियुक्त राजस्व अधिकारियों एवं पुलिस कर्मियों की उन लोगों के प्रति सहानुभूति नहीं थी, बल्कि उनकी शोषण मनोवृति से ये लोग परेशान हो गये थे। दूसरी ओर औपनिवेशिक सरकार ने उन क्षेत्रों के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया। जिसका प्रतिकार आदिवासी समूहों द्वारा किया गया।
स्टीफन फक्स, जगदीश चन्द्र झा आदि विद्वानों ने जनजातियों के विद्रोह का प्रमुख कारण आर्थिक माना है। आदिवासी अपने जीवन निर्वाह के लिए वनों से शहद, फल, लकड़ी, और बांस आदि प्राप्त करते थे। बांस का समान बनाना, पशुओं का शिकार, तथा मछली पकड़ना इनका प्रमुख उद्योग थे। सरकार ने वनों को सरकारी सम्पत्ति घोषित किया और अब आदिवासियों को जंगल से अन्य वन उपज संग्रह करने की स्वतन्त्रता नहीं रही। इस प्रकार जंगल कानूनों के जरिये परम्परागत अधिकारों का अपहरण हुआ, जिनसे आदिवासियों की कठिनाइयाँ बढ़ीं। आदिवासी समूहों में खौड़ (उड़ीसा), संथाल (राजमहल पहाड़ियाँ), मुंडा, कोल (छोटानागपुर ) एवं भील (महाराष्ट्र  व राजस्थान ) आदि प्रमुख थे।
प्रो. विपिनचंद्र ने लिखा है कि आदिवासी इलाकों में बाहरी लोगों और औपनिवेशिक राज की घुसपैठ ने उनकी पूरी सामाजिक व्यवस्था को ही उलट-पुलट दिया। उनकी जमीन उनके हाथ से निकलती गई और वे धीरे- धीरे किसान मज़दूर होते चले गये। जंगलों से उनके गहरे रिश्ते को भी औपनिवेशिक हमले ने तोड़ दिया। इसके पहले वे भोजन ईंधन और पशुओं के लिए चारा आदि जंगलों से जुटाते थे, जहाँ उनका जीवन पूरी तरह स्वच्छंद था।  खेती के उनके अपने तरीके थे। वे जगह बदल- बदल कर 'झूम ' और 'पडु' विधियों से खेती किया करते थे। यानि जब उन्हें लगता था कि उनके खेत अब उपजाऊ नहीं रह गये तो वे जंगल साफ कर खेती के लिए नई जमीन तैयार कर लेते थे। लेकिन औपनिवेशिक राज ने सब कुछ बदल दिया और जंगली भूमि, वन उत्पादों व गांवों की जमीन के इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगा दी गयी।आदिवासी इलाकों में ब्रिटिश सरकार द्वारा नवीन आबकारी कर वसूल किये जाने लगे। यहाँ तक कि नमक व अफीम पर भी कर लगाये गये। १८२२ में चावल की कम नशीली शराब पर उत्पादन शुल्क लगा दिया गया जिसे आदिवासी अपने प्रयोग के लिए तैयार करते थे और इसी आधार पर १८३० में प्रति घर के हिसाब से चार आना कर वसूल किया जाने लगा। १८२७ में पोस्त की खेती जबरन शुरू की गयी। इससे बेचैनी बढ़ती गयी।
  भू राजस्व के नये तरीकों (जैसे -स्थायी, रैयतवारी ,महालवाड़ी) ने बाज़ार अर्थव्यवस्था 'को जन्म दिया तथा पुरानी प्रचलित नीति जैसे चारागाह और वनों के परम्परागत सामुदायिक अधिकारों को नष्ट कर दिया गया। प्रो बिपिनचंद्र ने जिक्र किया है कि लगान वसूलने वाले लोग और महाजनों जैसे सरकारी बिचौलिए और दलाल आदिवासी का शोषण तो करते थे, जबरन बेगार भी करते थे।[6] इस तरह की सामाजिक विषमता कोई नया तथ्य न थी, किन्तु साम्राज्यवाद ने नए तरह का ध्रुवीकरण पैदा कर दिया। यह ध्रुवीकरण अब वैसे लोगों के बीच हो गया था जो भूमि हथिया चुके थे। दूसरी ओर वह वर्ग था, जिनके पारम्परिक अधिकार छीने जा रहे थे। इस विषमता ने नई समस्याओं को जन्म दिया। आमीर-गरीब के नए वर्ग विभाजन के कारण तनाव बढ़ रहा था और आदिवासी क्षेत्रों में बाहर से जाकर बसने वाले साहूकार और महाजनों द्वारा निर्मम शोषण इसका प्रमुख कारण था। अंग्रेजों ने भारतीयों की सामाजिक व्यवस्था एवं रीतिरिवाजों में हस्तक्षेप किया। विलियम बैटिंग ने सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए कानून बनाये जो जनजाति के लिए भी प्रभावी थे। आदिवासियों में इसका विरोध होने लगा। उड़ीसा में नर बलि रोकने के प्रयास का विरोध किया, भीलों ने भी डाकन प्रथा रोकने का प्रतिकार किया था।  दूसरी ओर ईसाई धर्म प्रचारक आदिवासी क्षेत्रो में जाने लगे। वस्तुतः ईसाई मिशनरियों की घुसपैठ को ब्रिटिश शासकों ने बढ़ावा दिया।
संथालों के विद्रोहों का जिक्र करते हुए कहा गया है कि वे लोग रेलवे लाइन का कार्य शुरू होने से भी आतंकित हो गये. यहाँ तक कि जो लोग इस कार्य में मज़दूरी कर रहे थे उनका भी यही अनुमान था कि इन्हें ठगा जा रहा है।यद्यपि आदिवासियों द्वारा औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध किये गये विद्रोहों को सफल नहीं होने दिया, किन्तु इन विद्रोहों ने लोगों में एक जागृति की भावना पैदा की। यहाँ हम प्रमुख आदिवासी विद्रोहों की चर्चा करेंगे।
खासी विद्रोह (1829)
            बंगाल प्रदेश के पूर्व में जयंतियाँ और पश्चिम में गारो पहाड़ियों के बीच 3500 वर्ग मील के पहाड़ी अंचल में बहादुर व लड़ाकू खासी लोग निवास करते थे। 1765 में सिलहट इलाके पर अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो गया था। अंग्रेजों के अधिकार से पूर्व खासियों के तीस अलग-अलग शक्ति सम्पन्न राज्य थे। प्रत्येक राज्य की अपनी एक परिषद थी और परिषद की अनुमति के बिना राजा कोई कार्य नहीं कर सकता था। डेविड स्काट का सहायक कैप्टेन ह्नइट उनकी परिषद की एक ऐसी ही बैठक में उपस्थित था। उनकी व्यवस्थित औचित्यपूर्ण और अनुशासन पूर्ण दो दिन की बहस और निर्णय को देखकर उसने स्वीकार किया कि किसी यूरोपीय समाज में इससे अलग उत्तम पद्धति उसने नहीं देखी। उनकी इस जनतंत्रात्मक व्यवस्था में प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता थी। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने ऐसी जाति को पराधीन बनाने का प्रयास किया तब तक उनका विद्रोही बन जाना स्वाभाविक था। प्रथम बर्मा युद्ध के उपरांत ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर 1824 में अँग्रेजों का अधिकार हो गयाइस क्षेत्र को सिलहट से जोड़ने के लिए एक सड़क बनाने की योजना बनाई गई। असम और सिलहट को खासी पहाड़ियों से होकर जोड़ने वाली सड़क का समाजिक महत्व था। डेविड स्काट की मान्यता थी कि इस अंचल में अंग्रेजों का प्रभाव स्थापित हो जाने से सिलहट की सीमा पर अशांति पैदा करने वाले खासिया सरदार डट जायेंगेउन पर ब्रिटिश सरकार का आतंक छा जायेगा।
       1827 में अनेक खासी मुखियाओं से वार्ता की गईकिंतु अंग्रेजों के अहंकार ने खासियों में असंतोष पैदा किया। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों द्वारा खासी मजदूरी की जबरन भर्ती का भी विरोध किया। सड़क दक्षिण असम के बारदुआर से प्रारम्भ होनी थी। छतरसिंह को ब्रिटिश सरकार ने इस प्रवेश का जमींदार नियुक्त कर रखा थाउसने सड़क बनाने की अनुमति प्रदान कर दी और इस कार्य में वांछित सहयोग का भी वायदा किया। किंतु ननक्लों के प्रमुख तीरथसिंह जो अंग्रेजों का एवं छत्तरसिंह का विरोधी था खासियों पर काफी प्रभाव था। उसने सड़क निर्माण तथा ननक्लों में अंग्रेजों के विश्राम के लिए बने सेनीटोरियम एवं बंगलों आदि के निर्माण को अपनी जाति के सादे जीवन पर आघात पहुँचाने वाला कार्य माना। खासी पहाड़ियों के छत्तीस छोटे-छोटे राज्यों के राजाओं के तिरूतसिंह को खासी क्षेत्र एवं असम से अंग्रेजों को निष्कासित करने में सहायता देने का आश्वासन दिया। मई 1829 को मोलिम (खासिया राज्य) के राजा बारमानिक के निर्देश पर खासियों ने विद्रोह कर दिया। उसके इशारे पर गारो युवकों के दल ने अंग्रेजों और बंगाली अधिकारियों को ननक्लों के सेनीटोरियम में घेर लिया। इस घटना से तनाव बढ़ गया और लेफ्टिनेंट बेडिग फील्ड मारा गया, अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार बेडिग फील्ड की एक कान्फरेंस में बुलाया गया और ज्यों ही वह पहुँचा उसे मार दिया गया। बाद में वे इस क्षेत्र के पॉलिटिकल एजेंट डेल्डि स्काट को पकड़ने के लिए चेरापूंजी की ओर बढ़े। इसके साथ ही समस्त खासी क्षेत्र में विद्रोह भड़क उठा। हजारों खासी लोग इस दल में सम्मिलित हो गए। गारो पहाड़ियों के इलाके में भी विद्रोह फैल गया। किंतु अंग्रेजों ने धीरे-धीरे स्थिति पर नियंत्रण कर लिया और एक के बाद एक खासियों के गावों को नष्ट कर दिया। अंग्रेजों ने आर्थिक नाकेबंदी का भी प्रयास किया। लगभग चार वर्ष तक दोनों पक्षों में छिटपुट संघर्ष होता रहा। जनवरी 1833 ई. में तिरूतसिंह ने उसे मृत्युदंड देने की शर्त पर आत्मसमर्पण कर दिया। अन्य खासी राजाओं ने भी इस तरह आत्मसमर्पण कर दिया एवं खासी विद्रोह दबा दिया गया।
2 खामती विद्रोह
      खामती जाति का मूल निवास बर्मा में इरावदी नदी घाटी का बोरखामती प्रदेश था। वहाँ से चलकर आसाम में अहोम राजा की अनुमति से पूर्वाचल में बस गये और वहाँ छोटा-सा राज्य स्थापित कर लिया। 1826 की संधि द्वारा खामती लोगों को ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने शासक के अधीन रहने की अनुमति प्रदान की तथा 200 सैनिक रखने की स्वीकृति भी मिल गई। 1830 में सिंगफो जाति ने असम के पूर्वी भाग में अंग्रेजों पर हमला किया था। उस समय खामती लोगों ने अंग्रेजों का साथ दिया। किंतु न्याय व्यवस्था, राजस्व वसूली अंग्रेज अधिकारियों को सौंप देने एवं अनेक टैक्स लगा दिये जाने से, खामती सरदार खता गोहाई, तओबा ओटाई, रूनू ओटाई, कक्पटेन ओटाई आदि अंग्रेजों से असंतुष्ट हो गये। उन्होंने सिंगफी सरदार को अंग्रेजों से समझौता न करने के लिए उकसाया। 1839 में खामती लोगों ने अचानक अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया और सदियो स्थित पूरी अंग्रेज रेजीमेंट को साफ कर दिया। मेजर ह्नाइट मारा गया और बरेक में रखी बंदूकें एवं तोपें आदि नष्ट कर दी गईं। कंपनी सरकार ने एक अलग सेना विद्रोहियों का पता लगाने हेतु भेजीं और विद्रोही सरदारों को गिरफ्तार करने के लिए बड़े-बड़े पुरस्कारों की घोषणा की गयी। अंत में, 1843 में सरदारों की आपसी फूट ने खामती लोगों को आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य किया। अंग्रेजों ने बाद में खामती लोगों को अलग-अलग बसाया जिससे वे पुन: संगठित न हो सके।
3 नागा विद्रोह
      सामान्यत: जिन्हें हम नागा नाम से जानते हैं एक प्रजाति का द्योतक न होकर विविध उपजातियों का मिश्रण है उनकी अलग-अलग भाषा, रीतिरिवाज एवं नामों से इस तथ्य का अभिज्ञान होता है। कंपनी सरकार नागा प्रदेश पर भी अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहती थी इसलिए थेम्बर्टन एवं जेनकिंस ने नागा लोगों के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल की। 1835 और 1851 के मध्य नागा पहाड़ी पर अंग्रेजों ने दस बार चढ़ाई की।अंग्रेजी हमले के प्रतिक्रिया स्वरूप 1849 में खोनोमा और मेजुमा गाँव के नागाओं ने दीमापुर के दक्षिण समगुतिंग की पुलिस चौकी के दरोगा भीमयक को मार दिया। 1850-54 में आक्रमण करके अंग्रेजों ने नागाओं के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया, किंतु उन्होंने भयभीत होकर समर्पण नहीं किया, अपितु वे अंग्रेजी क्षेत्र पर बराबर छुटपुट हमले करते रहे। 1866 में ब्रिटिश सरकार ने आगामी नागाओं के क्षेत्र पर अधिकार कर जिला घोषित किया तथा समगुतिंग में इसका कार्यालय बनाया। इसी तरह 1875 में लहोटा नागाओं के इलाके पर अधिकार कर लिया एवं 1889 में अवो नागाओं का क्षेत्र भी हस्तगत कर लिया।
4 कोल विद्रोह
बंगाल के छोटा नागपुर क्षेत्र में कोल जनजाति निवास करती है। इस जाति की अनेक शाखायें हैं जिनके अलग-अलग मुखियाओं के स्वतंत्र राज्य थे। इनका “मुख्या” राजा कहा जाता था। ताराचंद ने लिखा है कि कोलो ने इसलिए विद्रोह किया (1831-32) कि उनके गाँव को कोल मुखियों के हाथ से छीन कर प्रदेशी सिक्खों और मुसलमानों को दिया जा रहा था। छोटानागपुर के आदिवासी बाहरी लोगों को अपनी स्वतंत्रता में बाधक मानते थे। इस विद्रोह का एक अन्य कारण भूमि प्रबंध लगान वसूली का तरीका एवं साहूकारी व्यवस्था भी थी। कहा जाता है कि दरअसल भूमि संबंधी असंतोष ही इसका मूल कारण था। ‘हो’ और मुण्डों के बीच पुरानी ग्राम्य समाज व्यवस्था चली आ रही थी। सात से बारह गाँवों पर एक पीर होता था। इसका प्रधान या नेता “मानकी” कहलाता था। वह इन गाँवों के लगान के प्रति सरकार या जमींदार के प्रति जिम्मेदार था। वह गाँवों के मुखियों के कार्यों की निगरानी करता था। ये मुखिया ‘मुंडा’ कहलाते थे। ये मुंडे पुलिस का भी काम करते और अपने-अपने गाँवों का प्रतिनिधित्व करते थे।
       अंग्रेजों ने कर अदा करने के लिए आदिवासी राजाओं को बाध्य कर दिया। कर का भुगतान न किए जाने पर राजा को बदलना आम बात थी। दूसरी ओर आदिवासी अपने क्षेत्र में विदेशियों को प्रवेश करने नहीं देना चाहते थे। कोल प्रजाति की एक शाखा ‘होम’ ने अपने प्रदेश में बाहरी व्यक्तियों को घुसने से रोकने के लिए अपनी सीमाओं पर प्रबंध किये। पोराइट के राजा ने विवश होकर कर देना स्वीकार कर लिया था। परंतु होश ऐसा नहीं चाहते थे। 1820 में पौलिटिकल एजेंट के कोल्हन और चौबीसा क्षेत्र में प्रवेश करने पर उसका सशस्त्र विरोध उनकी उपर्युक्त नीति का अंग था। 1827 में उनके अनेक ग्राम जला कर नष्ट कर दिये गये और उन्हें जमींदारों को कर देने, कंपनी की प्रभुसत्ता स्वीकार करने को विवश किया। जमींदारों की लगान का भुगतान न करने पर जमीनें नीलाम की जाने लगीं और मैदानी भाग से आए लोगों को जमीनों पर अधिकार मिलने लगा। आदिवासियों पर उनके द्वारा निर्मित शराब पर उत्पादन शुल्क थोप दिया गया और उन्हें पोस्त की खेती करने को बाध्य किया गया। कंपनी कानूनों का उल्लंघन करने पर आदिवासियों को कचहरियों में ले जाया जाने लगा। इन परिस्थितियों ने कोलियरों को संघर्ष करने के लिए मजबूर किया। विद्रोह का एक अन्य कारण आदिवासी स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार भी रहा है। ऐसा सभी धर्म की स्त्रियों के साथ किया जाता था।
       उपर्युक्त घटनाओं से कोलों का असंतोष तक पहुँच गया। रांची, सिंहभूम, पालामड और मानभूमि आदि जिलों के सभी आदिवासियों ने 1831 में एक साथ विद्रोह कर दिया। विद्रोह का प्रारम्भ हिंसा और लूटपाट से हुआ। कहा जाता है कि इस विद्रोह में लगभग एक हजार गैर आदिवासियों को मार डाला गया। अंग्रेजी सेना ‘रामगढ़ बटालियन’ विद्रोह का दमन करने के लिए भेजी गई और दो माह तक संघर्ष के बाद 1832 में बड़ी कठिनाई से विद्रोह को दबाने में सफलता मिली। जमींदारों ने भी इसे दबाने हेतु अपनी सेनाएँ भेजी थीं। संघर्ष में आदिवासी नेता बुप्लो भगत, उसके बेटे तथा 150 अन्य आदिवासी मारे गये। कंपनी सेना के 16 लोग मरे तथा 44 घायल हुए। विद्रोहियों के एक वर्ग ने तब भी समर्पण नहीं किया था। अत: 1836 एवं 1837 में पुन: उनके विरुद्ध सेना भेजी गई।
.5 खौड़ विद्रोह
      उड़ीसा के निकटवर्ती प्रदेश खौड़माल क्षेत्र के आदिवासी खौड़ कहे जाते हैं। लगभग 800 वर्ग मील क्षेत्र में खौड़ लोगों के निवास हैं। 1846 से 1855-56 के मध्य गुमसर के खौड़ और बौड़ तथा पार्लियाखेमदी के सवार लोगों ने विद्रोह किये। इन आदिवासी आंदोलनों का मुख्य कारण पाश्चात्य इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेज प्रशासकों द्वारा खौड़ों में प्रचलित नरबलि तथा ‘मोरिया’ को रोकने का प्रयास था। जिन मनुष्यों की बलि दी जाती थी वे “मोरिया” कहलाते थे। कहा गया है कि बदलती हुई परिस्थितियों में बने दबावों और अनिश्चितता ने खौड़ों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे “मोरिया” के जरिये भगवान को खुश कर सकें ताकि हल्दी एवं अन्य फसलें अच्छी हो सकें। यह एक प्रकार की पृथ्वी पूजा का अंग था। कहा गया है कि सरकार इस प्रथा को रोकने के लिए कृत संकल्प थी। किंतु तथ्यात्मक स्थिति कुछ और ही थी। वस्तुत: अपने इलाके में बाहर से बसने वाले व्यक्तियों की संख्या में लगातार वृद्धि के कारण खौड़ों में असंतोष बढ़ रहा था। वे किसी को राजस्व भुगतान नहीं करते थे। खौड़ों का क्षेत्र बोद और दसपतला रियासतों के अधीनस्थ माना जाता था। किंतु खौड़ न तो बोद और दसपलता राजाओं को एवं न ही अंग्रेजों को अपना स्वामी मानने को तैयार थे। उनको यह आशंका थी कि अंग्रेज उनकी जमीन हड़प लेंगे, बेजार ली जाएगी और उनसे नए टैक्स वसूल किए जाएंगे।
       सम्भवत: कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में 1846 के प्रारम्भ में उन्होंने विद्रोह कर दिया। एक दिन अंग्रेज कप्तान मेकफरसन के शिविर पर सहसा आक्रमण किया। चक्र बिसोइ उनका नेतृत्व करने लगा तथा बड़ी संख्या में लोगों ने आंदोलन में भाग लिया। खौड़ विद्रोह को दबाने के लिए 1840 में मद्रास रेजीमेंट का दस्ता भेजा गया। खौड़ों के गाँव आग के हवाले कर दिए गए। किंतु खौड़ों ने हिम्मत नहीं हारी, डटकर अंग्रेजों का मुकाबला किया। 1855 में खौड़ आंदोलन को दबा दिया गया।
6 मुंडा विद्रोह
      मुंडा आदिवासियों का विद्रोह 1874 से 1901 के मध्य हुआ। 1895 के बाद इसका नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया। अत: इसे बिरसा मुंडा विद्रोह भी कहा जाता है। दक्षिण बिहार के छोटा-नागपुर इलाके के लगभग 400 वर्ग मील क्षेत्र में मुंडा निवास करते थे। प्रो. बिपिनचंद्र ने लिखा है कि मुंडा जाति में सामूहिक खेती का प्रचलन था, लेकिन जागीरदारों, ठेकेदारों, बनियों और सूदखोरों ने सामूहिक खेती की परंपरा पर हमला बोला। मुंडा सरदार 30 वर्ष तक सामूहिक खेती के लिए लड़ते रहे। मुंडा अंचल की जमीनें मुंडा लोगों के हाथ से निकल कर साहूकारों एवं जमीदारों के हाथ में जा रही थीं। ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था ने उन्हें कृषक से मजदूर बनने को बाध्य किया। इस कारण उनमें धीरे-धीरे असंतोष बढ़ने लगा। ब्रिटिश शासन जमींदारों एवं साहूकार वर्ग के उत्थान का एक महत्वपूर्ण कारक था। इस काल में इन वर्गों को आदिवासियों के शोषण की पूरी तरह छूट थी। मुंडों ने अपने सरदारों के नेतृत्व में इन लोगों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। उनका यह उपद्रव “सरजमी लड़ाई” के नाम से प्रसिद्ध था। शीघ्र ही तिरसा ने अंग्रेजी भूराजस्व व्यवस्था का विरोध करना शुरू किया। सुरेभासिंह की मान्यता है कि भूमि की समस्या मुंडाओं के असंतोष तथा विद्रोह का मूल कारण थी। स्थायी बंदोबस्त ने मुंडाओं को भी प्रभावित किया। वनों से लकड़ी काटने के प्रतिबंध संबंधी कानून ने उन्हें अपने परंपरागत अधिकार से वंचित कर दिया था। जंगल साफ करके खेती नहीं की जा सकती थी। वनों में अपने पालतू जानवरों को चराने पर प्रतिबंध था। इस प्रकार सुरेभासिंह के विचार से उनका विद्रोह मुख्य रूप से सामाजिक आर्थिक शक्तियों के विरुद्ध था। अत: बिरसा विद्रोह को केवल एक धार्मिक आंदोलन नहीं कहा जा सकता। इस विद्रोह में महिलाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी।
7 भील विद्रोह
महाराष्ट्र के वन प्रदेशों, गुजरात, मध्यप्रदेश एवं दक्षिणी राजस्थान में भील जनजाति बड़ी संख्या में निवास करती है। 1857 के पूर्व भीलों के दो अलग-अलग विद्रोह हुए। महाराष्ट्र के खानदेश में भील काफी संख्या में निवास करते हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर में विंध्य से लेकर दक्षिण पश्चिम में सहाद्रि एवं पश्चिमी घाट क्षेत्र में भीलों की बस्तियाँ देखी जाती हैं। 1816 में पिंडारियों के दबाव से ये लोग पहाड़ियों पर विस्थापित होने को बाध्य हुए। पिंडारियों ने उनके साथ मुसलमान भीलों के सहयोग से क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया। इसके अतिरिक्त सामंती अत्याचारों ने भी भीलों को विद्रोही बना दिया। 1818 में खानदेश पर अंग्रेजी आधिपत्य की स्थापना के साथ ही भीलों का अंग्रेजों से संघर्ष शुरू हो गया। कैप्टेन बिग्स ने उनके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और भीलों के पहाड़ी गाँवों की ओर जाने वाले मार्गों को अंग्रेजी सेना ने सील कर दिया, जिससे उन्हें रसद मिलना कठिन हो गया। दूसरी ओर एलफिंस्टन ने भील नेताओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया और उन्हें अनेक प्रकार की रियायतों का आश्वासन दिया। पुलिस में भर्ती होने पर अच्छे वेतन दिये जाने की घोषणा की। किंतु अधिकांश लोग अंग्रेजों के विरुद्ध बने रहे। 1819 में पुन: विद्रोह कर भीलों ने पहाड़ी चौकियों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। अंग्रेजों ने भील विद्रोह को कुचलने के लिए सतमाला पहाड़ी क्षेत्र के कुछ नेताओं को पकड़ कर फाँसी दे दी। किंतु जन सामान्य की भीलों के प्रति सहानुभूति थी। इस तरह उनका दमन नहीं किया जा सका। 1820 में भील सरदार दशरथ ने कम्पनी के विरुद्ध उपद्रव शुरू कर दिया। पिण्डारी सरदार शेख दुल्ला ने इस विद्रोह में भीलों का साथ दिया। मेजर मोटिन को इस उपद्रव को दबाने के लिए नियुक्त किया गया, उसकी कठोर कार्रवाई से कुछ भील सरदारों ने आत्मसमर्पण कर दिया। 1822 में भील नेता हिरिया ने लूट-पाट द्वारा आतंक मचाना शुरू किया, अत: 1823 में कर्नल राबिन्सन को विद्रोह का दमन करने के लिए नियुक्त किया। उसने बस्तियों में आग लगवा दी और लोगों को पकड़-पकड़ कर क्रूरता से मारा। 1824 में मराठा सरदार त्रियंबक के भतीजे गोड़ा जी दंगलिया ने सतारा के राजा को बगलाना के भीलों के सहयोग से मराठा राज्य की पुनर्स्थापना के लिए आह्वान किया। भीलों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया एवं अंग्रेज सेना से भिड़ गये तथा कम्पनी सेना को हराकर मुरलीहर के पहाड़ी किले पर अधिकार कर लिया। परंतु कम्पनी की बड़ी बटालियन आने पर भीलों को पहाड़ी इलाकों में जाकर शरण लेनी पड़ी। तथापि भीलों ने हार नहीं मानी और पेडिया, बून्दी, सुतवा आदि भील सरदार अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते रहे। कहा गया है कि लेफ्टिनेंट आउट्रम, कैप्टेन रिगबी एवं ओवान्स ने समझा बुझा कर तथा भेद नीति द्वारा विद्रोह को दबाने का प्रयास किया। आउट्रम के प्रयासों से अनेक भील अंग्रेज सेना में भर्ती हो गये और कुछ शांतिपूर्वक ढंग से खेती करने लगे। उन्हें तकाबी ऋण दिलवाने का आश्वासन दिया।

राघोजी भांगरे

राघोजींचा जन्म आदिवासी महादेव कोळी जमातीत झाला. इ.स. १८१८ साली पेशव्यांच्या नेतृत्वाखालील मराठा सैन्यास हरवल्यानंतर ब्रिटिशांनी महादेव कोळ्यांच्या परंपरागत अधिकारांत गणल्या जाणार्‍या सह्याद्रीतील किल्ल्यांच्या शिलेदार्‍या, वतनदार्‍या काढल्या. परंपरागत अधिकार काढून घेतल्याने महादेव कोळ्यांमध्ये मोठा असंतोष निर्माण झाला. इ.स. १८२८ साली शेतसारा वाढवण्यात आला. सारावसुलीमुळे गोरगरिबांना रोख पैशाची गरज भासू लागली. ते सावकार, वाण्याकडून भरमसाठ दराने कर्जे घेऊ लागले कर्जाच्या मोबदल्यात सावकार जमिनी बळकावू लागले. त्यामुळे राघोजींनी सावकार आणि ब्रिटिश यांच्याविरुद्ध बंडाला सुरुवात केली
परकीय सत्तेशी प्राणपणाने लढणा-या आदिवासी महादेव कोळी जमातीच्या बंडखोरांनी आणि त्यांच्या नायकांनी स्वातंत्र्य चळवळीत मोठे योगदान दिले आहे. राघोजी भांगरे हा या परंपरेतील एक भक्कम, ताकदवान, धाडसी बंडखोर नेता होता. पेशवाई बुडाल्यानंतर (१८१८) इंग्रजांनी महादेव कोळ्यांचे सह्याद्रीतील किल्ले, घाटमाथे राखण्याचे अधिकार काढून घेतले. किल्ल्याच्या शिलेदा-या काढल्या. बुरुज नष्ट केले. वतनदा-या काढल्या. पगार कमी केले. परंपरागत अधिकार काढून घेतल्याने महादेव कोळ्यांमध्ये मोठा असंतोष निर्माण झाला. त्यातच पुढे १८२८ मध्ये शेतसाराही वाढविण्यात आला. शेतसारा वसुलीमुळे गोरगरीब आदिवासींना रोख पैशाची गरज भासू लागली. ते सावकार, वाण्यांकडून भरमसाठ दराने कर्जे घेऊ लागले. कर्जाची वसुली करताना सावकार मनमानी करू लागले. कर्जाच्या मोबदल्यात जमिनी बळकावू लागले. दांडगाई करू लागले. त्यामुळे लोक भयंकर चिडले. त्यातूनच सावकार आणि इंग्रजांविरुद्ध बंडाला त्यांनी सुरुवात केली. बंडखोर नेत्यांनी या बंडाचे नेतृत्त्व केले.
अकोले तालुक्यातील रामा किरवा याला पकडून नगर येथील तुरुंगात फाशी देण्यात आली (१८३०). यातून महादेव कोळी बंडखोरांत दहशत पसरेल असे इंग्रजांना वाटत होते. रामाचा जोडीदार राघोजी भांगरे याने सरकारविरोधी बंडात सामील होऊ नये, यासाठी त्याला मोठ्या नोकरीवर घेतले. परंतु नोकरीत पदोपदी होणारा अपमान आणि काटछाट यांमुळे राघोजी भयंकर चिडला. नोकरीला लाथ मारून त्याने बंडात उडी घेतली. उत्तर पुणे व नगर जिल्ह्यात राघोजी आणि बापू भांगरे यांच्या नेतृत्वाखाली उठाव सुरु झाला. १८३८ मध्ये रतनगड आणि सनगर किल्ल्याच्या परिसरात त्याने मोठे बंड उभारले. कॅप्टन मार्किनटोशने हे बंड मोडण्यासाठी सर्व अवघड खिंडी, द-या, घाटरस्ते, जंगले यांची बारीकसारीक माहिती मिळविली. बंडखोरांची गुपिते बाहेर काढली. परंतु बंडखोर नमले नाहीत. उलट बंडाने व्यापक आणि उग्र रूप धरण केले. इंग्रजांनी कुमक वाढविली. गावे लुटली. मार्ग रोखून धरले. ८० जणांना कैद केले. दहशतीमुळे काही लोक उलटले. फंदफितुरीमुळे राघोजीचा उजवा हात समजला जाणारा बापुजी मारला गेला. पुढे राघोजीला पकडण्यासाठी इंग्रज सरकारने त्या काळी पाच हजारांचे बक्षीस जाहीर केले.
ठाणे ग्याझेटियर्सच्या जुन्या आवृत्तीत 'ऑक्टोबर १८४३ मध्ये राघोजी मोठी टोळी घेऊन घाटावरून खाली उतरला आणि त्याने अनेक दरोडे घातले' असा उल्लेख आहे. राघोजीने मारवाड्यांवर छापे घातले. त्यांनी पोलिसांत तक्रार केली. ठावठीकाणा विचारायला आलेल्या पोलिसांना माहिती न दिल्याने चिडलेल्या पोलिसांनी त्यांच्या आईचे निर्दयीपणे हाल केले. त्यामुळे चिडलेल्या राघोजीने टोळी उभारून नगर व नाशिकमध्ये इंग्रजांना सळो को पळो करून सोडले. हाती लागलेल्या प्रत्येक सावकाराचे नाक कापले. राघोजीच्या भयाने सावकार गाव सोडून पळाले, असा उल्लेख अहमदनगरच्या ग्याझेटियर्समध्ये सापडतो. साता-याच्या पदच्युत छत्रपतींना पुन्हा सत्तेवर आणण्यासाठी इंग्रजांविरुद्ध उठावाचे जे व्यापक प्रयत्न चालले होते. त्याच्याशी राघोजीचा संबंध असावा, असे अभ्यासकांचे मत आहे. बंडासाठी पैसा उभारणे समाजावर पकड ठेवणे व छळ करणा-या सावकारांना धडा शिकविणे या हेतूने राघोजी खंडणी वसूल करीत असे.
राघोजीच्या बंडानंतर सुमारे पंचवीस वर्षांनी वासुदेव बळवंत फडके यांचे बंड सुरु झाले. नोव्हेंबर १८४४ ते मार्च १८४५ या काळात राघोजीचे बंड शिगेला पोचले होते. बंड उभारल्यानंतर राघोजीने स्वतःच 'आपण शेतकरी, गरिबांचे कैवारी असून सावकार व इंग्रज सरकारचे वैरी आहोत,' अशी भूमिका जाहीर केली होती. स्त्रीयांबद्दल राघोजीला अत्यंत आदर होता. टोळीतील कुणाचेही गैरवर्तन तो खपवून घेत नसे. शौर्य व प्रामाणिक नीतीमत्ता याला धर्मिकपणाची जोड त्याने दिली. महादेवावर त्याची अपार श्रद्धा व भक्ती होती. भीमाशंकर, वज्रेश्वरी, त्र्यंबकेश्वर, नाशिक, पंढरपूर येथे बंडांच्या काळात तो दर्शनाला गेला होता. त्याच्या गळ्यात वाघाची कातडी असलेल्या पिशवीत दोन चांदीचे ताईत असत. त्याच्या बंडाला ईश्वरी संरक्षण आणि आशीर्वाद असल्याची त्याची स्वतःची धारणा होती.
देवजी हा त्याचा प्रमुख सल्लागार आणि अध्यात्मिक गुरुदेखील होता. मे १८४५ मध्ये गोळी लागून देवाजी ठार झाला. त्यामुळे मात्र राघोजी खचला असावा. त्याने आपला रस्ता बदलला. नंतरच्या काळात तर गोसाव्याच्या वेशात तो तीर्थयात्रा करू लागला. विठ्ठलाच्या दर्शनाला त्याने दिंडीतून जायचे ठरविले. ईश्वरी शक्तीची तलवार, चांदीचे ताईत आणि लांब केस याची साथ त्याने आयुष्यभर कधीही सोडली. २ जानेवारी १८४८ या दिवशी इंग्रज अधिकारी लेफ्टनंट गेल याने चंद्रभागेच्या काठी राघोजीला अटक केली. कसलाही विरोध न करता राघोजीने स्वतःला पोलिसांच्या स्वाधीन केले.
साखळदंडात करकचून बांधून त्याला ठाण्याला आणले. त्याच्यावर राजद्रोहाचा खटला भरण्यात आला. विशेष न्यायाधीशांसमोर राजद्रोहाच्या खटल्याची सुनावणी झाली. दुर्दैवाची गोष्ट म्हणजे, या निधड्या छातीच्या शूर वीराचे वकील पत्र घ्यायला कोणीही पुढे आले नाही. वकील न मिळाल्याने राघोजीची बाजू न मांडली जाताच एकतर्फी सुनावणी झाली! राघोजीला दोषी ठरविले गेले. त्याला फाशीची शिक्षा ठोठाविण्यात आली. राघोजी खरा वीर पुरुष होता. बंडाच्या तीन पिढ्यांचा त्याला इतिहास होता. अभिजनवादी इतिहासकारांचे या क्रांतीकारकाच्या लढ्याकडे काहीसे दुर्लक्षच झाले. ' फाशी देण्यापेक्षा मला तलवारीने किंवा बंदुकीने एकदम वीर पुरुषासारखे मरण द्या,' असे त्याने न्यायाधीशांना सांगितले. ते न ऐकता सरकारने बंडाचा झेंडा फडकवणा-या या शूर वीराला २ मे १८४८ रोजी ठाणे येथील मध्यवर्ती कारागृहात फासावर चढविण्यात आले. अकोले [जि.अहमदनगर] तालुक्याच्या या भूमिपुत्राच्या बंडाने पुढच्या काळातील क्रांतीकारकांना प्रेरणा मिळाली. त्यातूनच अकोले तालुक्याने स्वातंत्र्यपूर्व काळात अनेक चळवळीमध्ये महत्वाची भूमिका बजावल्याचे इतिहास सांगतो.

CULTURAL SURVIVAL

Called Tribal Peoples, First Peoples, Native Peoples, and Indigenous Peoples, these original inhabitants call themselves by many names in their 4,000 + unique languages and constitute about 5% of the world’s population.
There are approximately 370 million Indigenous people in the world, belonging to 5,000 different groups, in 90 countries worldwide. Indigenous people live in every region of the world, but about 70% of them live in Asia.
There is no universally accepted definition for “Indigenous,” though there are characteristics that tend to be common among Indigenous Peoples:
  • Indigenous People are distinct populations relative to the dominant post-colonial culture of their country. They are often minority populations within the current post-colonial nations states. In Bolivia and Guatemala Indigenous people make up more than half the population.
  • Indigenous People usually have (or had) their own language, cultures, and traditions influenced by living relationships with their ancestral homelands. Today, Indigenous people speak some 4,000 languages.
  • Indigenous People have distinctive cultural traditions that are still practiced.
  • Indigenous People have (or had) their own land and territory, to which they are tied in myriad ways.
  • Indigenous People self-identify as Indigenous.

Examples of Indigenous Peoples include the Inuit of the Arctic, the White Mountain Apache of Arizona, the Yanomami and the Tupi People of the Amazon, traditional pastoralists like the Maasai in East Africa, and tribal peoples like the Bontoc people of the mountainous region of the Philippines.

Political action

The international human rights mechanisms – including: the United Nations Permanent Forum on Indigenous Peoples Issues (UNPFII)the Expert Mechanism on the Rights of Indigenous Peoplesthe UN Declaration on the Rights of Indigenous Peoples (UNDRIP)the Universal Periodic Review (UPR); and several Treaty Bodies and Special Procedures – serve in part to provide legal mechanisms for Indigenous Peoples to protect their rights (for example, the right to Free, Prior, Informed Consent (FPIC) - a key concept for self-determination and protecting Indigenous lands.) These entities, policies, and procedures present key opportunities for Indigenous Peoples to speak and advocate for themselves, their cultures, their lands, and their lifeways when state and local governments fail to honor and protect their rights.

Communication strategies

Radio’s universal and free nature and its ability to access many remote communities makes it a key medium to reach Indigenous audiences. Indigenous-produced programming strengthens Indigenous peoples’ capacity to assert and demand their rights and enables access to information on climate change, environmental issues, women’s rights, education, languages and cultures, self-determination, and Free, Prior and Informed Consent. Cultural Survival’s partners are amplifying Indigenous voices on issues that matter to their communities. Broadcasting in Indigenous languages ensures widespread understanding and cultural continuity.

Indigenous Peoples and the Environment

It is estimated that Indigenous territories contain 80 percent of the earth’s biodiversity. Indigenous lands also hold unquantified megatons of sequestered carbon as 11% of the planet’s forests are under their guardianship. These regions face an unprecedented and rapid loss of biodiversity and climate change effects resulting from the fossil fuel-based industrialized global economy and natural resource extraction. Many traditional Indigenous lands have become biodiversity “hotspots.” For Indigenous Peoples, conservation of biodiversity is an integral part of their lives and is viewed as spiritual and functional foundations for their identities and cultures. It is no coincidence that when the World Wildlife Fund listed the top 200 areas with the highest and most threatened biodiversity, they found that 95 percent are on Indigenous territories.
Indigenous Peoples and the environments they maintain are increasingly under assault from extractive industries such as mining, oil exploration, logging, and agro-industrial projects.
Indigenous Peoples resist this invasion with tremendous courage and skill, but their protests are too often ignored by governments and corporations.

Extractive industries

It is no coincidence that 80 percent of the earth’s biodiversity is found on Indigenous lands. It is because of Indigenous people’s stewardship and relationship with the environment. However, governments in Indigenous Peoples’ homelands and multinational corporations too often violate Indigenous Peoples’ rights by operating in their territories without their Free, Prior and Informed Consent... Often culturally, linguistically and geographically separate from mainstream cultures, Indigenous Peoples lack the financial resources and access to decision-making platforms to demand a voice at the table and ensure that their best interests are represented. Indigenous Peoples, having exhausted avenues in seeking justice and protection of their rights at the national level, can choose to seek international pressure and attention to their plights.

This is where Cultural Survival comes in.

With your support, Cultural Survival empowers and supports Indigenous Peoples to advocate for their rights — human rights, the right to participate and have a voice, the right to practice their cultures and speak their languages, the right to access the same opportunities as others, and the right to control and sustainably manage their assets and resources — so that they may determine for themselves the future they will lead.

भीमा नायक

निमाड़ के रॉबिनहुड कहलाने वाले स्वतंत्रता संग्राम सेनानी भीमा नायक का मृत्यु प्रमाण-पत्र पहली बार सामने आया है। उनकी मृत्यु 29 दिसंबर 1876 को पोर्ट ब्लेयर में हुई थी।
धोखे से पकड़ा था भीमा को
भीमा नायक के जीवन को लेकर अब भी कई तथ्य अबूझ ही हैं। हालांकि अब तक हुए शोध के अनुसार भीमा का कार्य क्षेत्र बड़वानी रियासत से वर्तमान महाराष्ट्र के खानदेश क्षेत्र तक रहा है। 1857 में हुए अंबापानी युद्ध में भीमा की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अंग्रेज जब भीमा को ऐसे नहीं पकड़ पाए तो उन्हें उनके ही किसी करीबी की मुखबिरी पर धोखे से पकड़ा गया था। शोध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी सामने आया है कि उस समय जब तात्या टोपे निमाड़ आए थे तो उनकी मुलाकात भीमा नायक से हुई थी। उस दौरान भीमा ने उन्हें नर्मदा पार करने में सहयोग किया था।
धोखे से पकड़ा था भीमा को भीमा नायक के जीवन को लेकर अब भी कई तथ्य अबूझ ही हैं। हालांकि अब तक हुए शोध के अनुसार भीमा का कार्य क्षेत्र बड़वानी रियासत से वर्तमान महाराष्ट्र के खानदेश क्षेत्र तक रहा है। 1857 में हुए अंबापानी युद्ध में भीमा की महत्वपूर्ण भूमिका थी। अंग्रेज जब भीमा को ऐसे नहीं पकड़ पाए तो उन्हें उनके ही किसी करीबी की मुखबिरी पर धोखे से पकड़ा गया था। शोध में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी सामने आया है कि उस समय जब तात्या टोपे निमाड़ आए थे तो उनकी मुलाकात भीमा नायक से हुई थी। उस दौरान भीमा ने उन्हें नर्मदा पार करने में सहयोग किया था।

CHENCHU TRIBE

The Chenchus are a tribe residing mainly in Andhra Pradesh and speak a dialect of the Telugu language known as Chenchu. The Chenchus of Andhra Pradesh are quite forward in their thoughts, compared to the rest of Indian society, when it comes to matters of the heart. Chenchu youth are free to marry whoever they wish to. There is no form of parental pressure or aggression. Also, the clan is divided into Gotras (like our caste system), and generally they do not marry within the same Gotra. Unlike our rigid society, Chenchu tribes allow divorce, and widows too are allowed to remarry. Well, maybe our society can take a few 'lessons' from them?
“When this region was a Naxalite bastion, the revolutionaries would take shelter inside the hamlets. Chenchus would say no to neither — them or the police. Police would torture them endlessly, but silence is what they would be rewarded with.”

Well, it’s cacophony we need to sustain the “development” in our world, or to take the supposedly momentous, but dishonest decisions about reversing the damage done. But quiet and stillness is what the life in forests taught Chenchus, primarily a hunting, gathering tribe. After all, you don’t rustle about and give yourself away to either your prey or predator!



“They have the ability to detect water, sometimes inside the trees. Our elders would mark such trees, and explore them for a drink when on foot inside the forest. I remember my father getting us water from the tree
Uchchu and Bonu are the trapping methods, while Maatu is to hunt.
Quail or Burka Pitta is made accustomed to jowar seeds for a few days, after which a looped snare is laid across four pegs lined with loose knots.
“The bird will extend its neck to eat the grain, and once it withdraws the neck, the knots become tight,” tells Mallikarjun with the help of an amateurish depiction on paper.
To trap a partridge, or jungle fowl, a different loop is laid and covered with ashes. The knots tighten when the birds behaviourally scatter the ashes backwards to pick the grains.
Bonu with boulders and sticks is used to ensnare porcupine, but the method I couldn’t quite picture with my puny brain despite repeated explanations.
Squirrels and peafowl (hush!) too are trapped.
“A flexible branch should be bent downwards from the tree, and tied to a wooden peg driven into the ground along with a loop, near which figs, jowar seeds and chillies are scattered. When a squirrel or bird steps into the snare to have the fill, the peg loosens and the prey is flung back along with the branch.”

Betta kola is another device to hit squirrels directly with the help of bow. Receiving the hit, the squirrel would spiral down to the ground, dead.
Hunting rabbits and deer requires absolute stillness which comes only with practice. Rocks and branches are used as covers by Chenchus sitting still on Maatu near waterholes frequented by both the animals. Bows and arrows of bamboo are used for hunting.

गोलियों के बीच फंसे हैं आदिवासी

प्राकृतिक संसाधन और आदिवासी संस्कृति से समृद्ध छत्तीसगढ़ को इस रूप में जानने की बजाए उसे नक्सल प्रभावित क्षेत्र के रूप में कहीं अधिक याद किया जाता है। विशेषकर बस्तर और उसके आसपास के क्षेत्रों से आपको नक्सलवाद से जुड़ी खबरों के अतिरिक्त कुछ और सुनने अथवा पढ़ने को नहीं मिलेगा। विकास की खबरें यहां शून्य हैं। इन क्षेत्रों से गुजरते हुए अक्सर लोग यह सलाह देते हुए मिल जाएंगे कि आप आमाबेड़ा और अंतागढ़ जैसे क्षेत्रों में न जाएं क्यूंकि वहां हथियारबंद दस्ता मौजूद है। आमाबेड़ा जाते हुए सड़क के दोनों ओर आपको उनकी उपस्थिती का अहसास हो जाएगा। रास्तों पर लगे बैनर और पर्चे उनकी मौजूदगी का एलान करते हैं। ऐसी परिस्थितियों में आप कल्पना कर सकते हैं कि वहां के युवा आदिवासियों को किस प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। कई नौजवान बिना किसी ठोस सबूत के वर्षों से जेल की सलाखों के पीछे जिंदगी गुजार रहे हैं। इस क्षेत्र को करीब से जानने वाले मेरे मित्र अजय बताते हैं कि अकेले कांकेर जैसी छोटी जेलों में तीन सौ आदिवासी युवा बंद हैं। राज्य के ऐसे कई जेल इसी का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। स्थानीय निवासियों के अनुसार राज्य के विभिन्न जेलों में हजारों युवा आदिवासी केवल इस आरोप में ठूंस दिए गए हैं कि उन्होंने कभी हथियारबंद दस्ता के किसी सदस्य को एक वक्त का खाना खिलाया था। जबकि वास्तविकता यह है कि आज भी आदिवासी घर आए मेहमान का पांव धोकर और माथे पर तिलक लगाकर उनका स्वागत करने की अपनी महान परंपरा का पालन करते हैं तथा बगैर भोजन कराए उन्हें जाने नहीं देते हैं। ऐसी परिस्थिति में जब कोई व्यक्ति उनके पास बंदूक लेकर आए तो क्या वह उन्हें किसी भी चीज के लिए मना कर सकते हैं? विशेष रूप से जबकि उन्हें इंकार करने का परिणाम मालूम है।

माओवादियों से कारगर ढ़ंग से निपटने की बजाए बेकसूर स्थानीय निवासियों को जेल में डालने से समस्या का हल निकलने की बजाए वह और भी पेचिदा हो जाएगा। समस्या का इस प्रकार निपटारा से नौजवानों में शासन के प्रति अविश्वानस उत्पन्न हो रहा है और वह हिंसा की ओर अग्रसर हो रहे हैं। माओवादियों का साथ देने के आरोपों का सामना कर रहे स्थानीय नौजवानों के सामने दो ही विकल्प रह जाते हैं, या तो वह वास्तव में बंदूक उठाकर उनका साथ दें अथवा गांव छोड़कर चले जाएं। जो इस बात की ओर इशारा है कि शासन धीरे-धीरे स्थानीय जन समर्थन खो सकता है।

जमीनी सच्चाई यह है कि आदिवासी दो बंदूक के बीच फंसकर रह गए हैं। माओवादी उन्हें पुलिस का मुखबिर होने का शक करती है तो दूसरी ओर पुलिस को उनपर माओवादियों के समर्थक होने का अंदेशा रहता है। आमाबेड़ा और अंतागढ़ क्षेत्रों के ग्रामीण अजीब उलझन में जिंदगी बसर कर रहे हैं, क्योंकि दोनों ही ग्रुप पुलिस की वर्दी में आते हैं। ऐसे में उन्हंह इस बात का कतई आभास नहीं हो पाता है कि कौन माओवादी है तथा कौन सा ग्रुप वास्तव में सुरक्षा बल है, और फिर हम इन भोले-भाले अनपढ़ ग्रामीणों से यह आशा कैसे कर सकते हैं कि वह सुरक्षा बल और माओवादियों में अंतर को पहचानें। कहीं न कहीं हमारी व्यवस्था की खामियों ने उनके जीवन को एक ऐसे अविश्वास के अंधे कुंए में धकेल दिया है जहां आदिवासी अपना जीवन महज गुजार भर लेने के लिए संघर्षरत हैं। छत्तीसगढ़ में पुलिस और पारा मिलिट्री फोर्स की उपस्थिति यहां एक नई प्रथा को जन्म दे रही है। यदि आप यहां के निवासी नहीं हैं अथवा आपको आदिवासी परंपरा का ज्ञान नहीं है तो आपको स्थानीय संस्कृति का अंदाजा नहीं हो सकता है। यहां तैनात पुलिस और पारा मिलिट्री फोर्स का कुछ ऐसा ही हाल है। वह स्थानीय निवासियों से कुछ ऐसे अंदाज में व्यवहार करते हैं जो उनकी परंपरा के विपरीत है। आदिवासी महिलाएं जो उन्मुक्त वातावरण में रहती थीं अब ऐसा नहीं कर पाती हैं और यहां तक कि उन्हें अपनी दैनिक दिनचर्या को निपटाने में भी कठिनाईयों से जुझना पड़ता है। सुरक्षा बल और माओवादी दोनों की उपस्थिती आदिवासियों के लिए बहुत सारी कठिनाईयों को जन्म दे रही है। जो उन्हें निराशा के घोर अंधेरे की ओर धकेल रही है।
एक ऐसे वातावरण में जहां आदिवासी प्रत्येक क्षण खौफ में जी रहे हों, ऐसे मुश्किल समय में उनके लिए आशा की किरण के रूप में वहां कार्यरत कुछ सामाजिक संगठन हैं जो उनके अधिकार के लिए प्रत्येक मोर्चे पर संघर्षरत हैं। हालांकि उनकी स्थिति भी बहुत हद तक आदिवासियों की तरह है। जिन्हें दोनों ओर से मुखबिर समझा जाता है और उनके नेक कार्यों को भी शक की निगाह से देखा जाता है। यदि उन्हें अपना कार्य आदिवासियों की भलाई के लिए करना है तो उन्हें ग्रामीण क्षेत्रों में बेखौफ होकर कार्य करने की आवश्यकता है विशेषकर सुदूर जंगली क्षेत्रों में। परंतु शासन-प्रशासन को यह मंजूर नहीं। इसके विपरीत उनके कार्यों को नक्सल समर्थक से जोड़ कर देखा जाता है। उनपर यह आरोप लगाया जाता है कि उनके कार्य नक्सलियों के लिए जमीन तैयार करने में सहायक हैं। इस आरोप में कई बार सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल भी भेजा गया है। परंतु उनके खिलाफ कोई ठोस सबूत नहीं मिल पाया है।

छत्तीसगढ़ में कई गैर सरकारी संगठन एकता परिषद ट्रेनिंग प्रोग्राम का हिस्सा हैं। बड़ी संख्या में क्षेत्र के युवा एकता परिशद के अहिंसात्मक विचारधारा के तहत सम्मानजनक जीवन तथा अपने संसाधन पर हक पाने की मुहिम का हिस्सा बने हुए हैं। इन्होंने महात्मा गांधी के अहिंसात्मक विचारधारा पर चलने का प्रण किया हुआ है तथा इसी माध्यम से जड़, जंगल और जमीन की वापसी की कोशिश में लगे हुए हैं। मुझे पूर्ण विश्वा,स है कि विषम परिस्थितियों में भी यह अपनी विचारधारा से विमुख होकर हिंसा का रास्ता नहीं अपनाएंगे। ऐसे में इनपर हिंसात्मक विचारधारा के समर्थकों के लिए जमीन तैयार करने में सहायता देने का आरोप पूर्ण रूप से निराधार है। अलबत्ता यह लोग सरकारी तंत्र और उसके कामकाज के कटु आलोचक अवश्य हैं। जो तंत्र को चलाने वालों को रास नहीं आता है और उनके लिए सबसे आसान उपाय इन्हें नक्सली समर्थक करार देना होता है। मेरे विचार में हमें विचारधारा बदलने और जमीनी हकीकत से रूबरू होने की आवश्याकता है। इसके लिए एयरकंडीशन रूम से निकलकर और कागजों में प्लान तैयार करने की अपेक्षा सामाजिक संगठनों के साथ मिलकर कार्य करने की जरूरत है क्योंकि इनमें अधिकतर स्थानीय निवासी हैं जो छत्तीसगढ़ की जमीन को जड़ से समझते हैं। इन्हें साथ लेकर चलने से न सिर्फ विकास की वास्तविक परिभाषा सार्थक होगी बल्कि क्षेत्र में जड़ जमाते नक्सलियों को भी मुंह तोड़ जवाब दिया जा सकता है।

बदकिस्मती से यह आसान सा सिद्धांत किसी के समझ में नहीं आ रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह बात तय कर ली गई है कि जो कोई सरकारीतंत्र की आलोचना करे वह नक्सली समर्थक है और उसके साथ वही कानून और धाराओं का इस्तेमाल किया जाता है जो नक्सलियों के लिए बनाई गई हैं। ऐसे समय में जबकि सरकारी कर्मचारी खौफ से ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से डरते हैं, आपके पास ऐसे लोग मौजूद हैं जो कम से कम गांवों जाकर हाशिए पर जीवन बसर करने वाले समुदाय को मदद पहुंचाना चाहते हैं। यह बड़ी विचित्र बात है कि सरकारी अधिकारी नक्सलियों के डर से ग्रामीण क्षेत्रों में जाने से कतराते हैं और इन सामाजिक संगठनों को भी जाने से रोकते हैं जबकि उन्हें वहां जाने में कोई समस्या नहीं होती है। इसके पीछे केवल यही कारण है कि यह सामाजिक संगठन सरकारी अधिकारियों के काम करने के ढ़ंग की मुखर आलोचना करते हैं। यदि आप इस पूरे प्रकरण को अच्छी तरह से समझते हैं तो आपको स्पष्टस रूप से नजर आ जाएगा कि वह लोग यहां की आबादी को सशस्त्र बल के रहमोकरम पर छोड़ देना चाहते हैं। ऐसा लगता है कि छत्तीसगढ़ और झारखंड में ऐसे संगठन हैं जो इस तनाव को खत्म करने की बजाए इसपर अपने फायदे की रोटी सेकना चाहते हैं। मुझे ऐसा महसूस होता है कि इस तनाव और हिंसा से कई लोगों को फायदा मिलता है। यह कौन लोग अथवा संगठन है यह विचारनीय है। एक कहावत है कि जब अधिक लोग बीमार होते हैं तो डॉक्टर खुश होता है, इसी प्रकार जब किसी इलाके में कोई तनाव होता है तो राजनीतिक दल खुश होते हैं। छत्तीसगढ़ के प्राकृतिक संसाधन को राज्य से बाहर ले जाने के लिए इस प्रकार का तनाव काफी कारगर सिद्ध हो सकता है। अब प्रष्न यह उठता है कि हम छत्तीसगढ़ को इस हिंसा से किस प्रकार बचाएं? 

Marvelous Facts About ADIVASI People In The World

 

 World Population

There are currently about 7.1 billion people living on planet earth. How many of the world’s population are indigenous? According to the latest reports, a total of 370 million individuals. They currently live in 70 countries around the world and represent only a 5% of the total world’s population. Eighty percent of the world’s indigenous people live in Asia and South East Asia.

Most Indigenous Tribes Chose Modernity By Force


Due to the aggressive western acculturation, more than 50 percent of the world’s indigenous population live in urban cities of Asia and the Pacific. Indigenous people moved to cities searching for opportunities for their own development, such as employment and education. But the majority moved to urban areas to escape human right abuses and violations perpetrated by their states.



 The Impressive Skills Of Indigenous Tribes


Indigenous people are genetically vulnerable to common diseases. But their lifestyle also made them develop astonishing abilities.
The Moken Sea Gypsies of the Andaman Sea, on the west coasts of Thailand, have been fishing underwater for centuries. They have a superhuman eyesight: the eyesight of Mokenchildren, who swim even before they walk, are 50% stronger than any European children. Furthermore, their bodies are endowed to maximize the use of oxygen, and they stay underwater for a long while.

 All Indigenous Tribes Share Something In Common


Although Indigenous people represent 5% of the world’s population, they are distributedamong at least 5000 different groups.
Even though such groups profess different beliefs, they share one thing in common: the essential connection with the land and the need to preserve it. In theory, the opposite of what the West has done.

 When Knowledge Surpasses Science


Over centuries, Indigenous tribes acquired a deep understanding of agriculture. Agricultural tribes developed special farming techniques and a knowledge that surpassed the boundaries of scientific scope.
This is the case of The Pradhan tribes of India. The Pradhan’s techniques were very sophisticated. Centuries before pesticides were even conceived, their crops were resistant to pest and contaminants. The Pradhan also found a way of multiplying their crop yields. Their secret?: Knowledge. This feat was achieved by a ritual of seed selection. The selected seeds produced higher yields, easy to harvest crops, and invulnerable to any pest. Sadly, this ritual ended with colonialism. Tribes were forced to buy seeds from the market.
Now most Indian crops use chemical pesticides, otherwise, they get infested. Also, crops must use fertilizers to obtain a decent yield. While chemical corporations accumulate profits, the Pradhan knowledge is gone.
Businesses become profitable by spreading the ignorance of the consumer. Because, by taking away their knowledge, a natural producer becomes a dependent consumer. The Pradhan tribes offer a fine example.

 Their Knowledge is Almost Magical


By the means of knowledge, magic can potentially become reality, and serve as a way to foretell the future. Both rules may be applied to the Moken Tribe.
It is hard to forget the 2004 Indian Ocean Earthquake and Tsunami that killed 230,000 people in 23 countries. No scientist could predict that devastating earthquake. The entire population in that region was killed by the tsunami, with only one exception: the Moken tribe.
Hours before the Tsunami, the Moken noticed the “strange behavior of the sea”, and their children began crying. The Moken knew a tsunami was coming and rushed to a higher ground to warn everyone about the danger. Nobody, not even the older fishermen, believed them.
The Moken, who live and die by the sea, know the sea better than any marine biologist. Their knowledge may even surpass the boundaries of science. If magic exists, for whatever reason, it’s not on speaking terms with Science.


 Indigenous People Know A Lot Of Marvelous Things


In general, the beliefs you hold shape your life and the world around you. And language has a lot to do with it. Language is a sort of software we carry in order to live in our societies. Every language is a system of thought and shapes our perception of things, our conceptions of happiness and sorrow, and our personal realities.
Our language makes us blind to certain things that exist but that, due to language barriers, we are unable to perceive. If the limits of our language are the limits of our world, natives have an endless resource. A sort of rabbit hole that goes deeper into marvelous realms. Indigenous people across the world speak more than 4000 different languages. In those languages, common words like I, you, want, take, do not really exist. Also, the conceptions of quantity, numbers, and possessions are despised. Can you imagine how much they can teach us about life?











 Indigenous People Are Truly “Civilized”


The question then is “Civilization”. What does it mean? Who is truly “civilized”? Us or them?
Living in wild nature, Indigenous tribes are able to feed themselves, fabricate their clothes, build their residencies, hunt, protect and respect their land, cultivate their soil, preserve the environment, and live in peace without any need for “authority”. They also succor wild animals under threat and feel compassion for us even when we evict them from their lands.
What is civilization then? What is to be modern? To validate only a few codes and reject other essential values? To give up all sense of communion and persist on spoiling the environment?
If to be civilized entails to passively accept the abuses against indigenous tribes, then we must be on the wrong side of history. Meanwhile, civilization will wipe down the legacy natives have collected for millennia while most of us remain passive.

 Indigenous Tribes Support the Fauna


The Amazonian Awa tribe have a sacred dictum: by preserving the flora and fauna, they are also preserving themselves.
However, their preservation practices differ according to their beliefs. While certain animals are venerated, others are used merely as food. Yet, all natives respect the ecosystem of every species.
The Awa tribe, for example, adopt monkeys as companions.  And whenever an animal suffers, natives come to the rescue. Tribal women breastfeed newborn monkeys if they feel hungry. One Awa women said: “If we didn’t breastfeed them, they would die.” In other occasions, Awa women also breastfeed little pigs and raccoons.

 Corporations Are Aware Of The Vast Indigenous Knowledge (And Want to Take It Away)


When analyzing the 20th century, Historian E. S. Thomson often talked about the “enormous condescension of posterity”. How is it that western science (with a few centuries of existence) looks down on the vast knowledge natives have accumulated for millennia?
But the west has changed such approach. They are finally realizing that, by destroying these tribes, they are also destroying knowledge. Multinationals have now been appropriating the indigenous medical heritage. More than 100 pharmaceutical companies are currently funding projects to study indigenous plants used by native/indigenous healers.
Biopiracy” is the process in which corporations issue patents on medical compounds owned by the indigenous. Multinationals converting natural resources into private monopolies can be argued for the sake of public health. However, the problem comes when these corporations, having “patent rights”, attempt to stop indigenous tribes from using their own medicine. This devious practice has occurred repeatedly.

 “Thank You”, That Very Strange Word


Natives and westerners, although sharing the same territory, live in totally different worlds. One example is the expression “Thank you”. Although aboriginals have the word “Thank you”, they hardly ever use it. In fact, they consider it odd that westerners say “thank you”, “thank you”,”thank you” almost obsessively.
Their tribes live under an organization where “obligations” is just natural behavior. They have a duty of feeding their family and help members of their tribe. Such solidarity is alwaysexpected from them.  Therefore, telling them “thank you” would be offensive because they assume you doubted their assistance.
Some Australians, who misunderstand this cultural trait, find the aboriginal behavior very rude.

 Most Indigenous Tribes Are Poor


In our era of human rights, indigenous tribes face strong discrimination. Such general rejection had kept them in poverty. Even though five percent of the world’s population is indigenous, they represent 15% of the world’s poor. It is estimated that the poorest live in China and India.
For some Indigenous tribes, “poverty” and “wealth” are nonexistent terms. Poverty and wealth are only absurd labels that western culture (whose view revolves around self-gratification and property) imposed on them.
Some natives regard “possessions and property” as trivialities, odd concepts, and superficialities of the western world. Nevertheless, they all desire to keep the ability to support themselves (by hunting, gathering and agriculture). This fundamental right was taken away by the state. Their struggle is aimed to retain the right to shape their own destinies and manage their own resources.