भारत में ब्रिटिश राज के बाद यहाँ के आदिवासियों के साथ अनेक सशस्त्र संघर्ष हुए। जिनका प्रमुख कारण ब्रिटिश सरकार द्वारा उनकी विशिष्ट, भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक परम्पराओं में हस्तक्षेप किया जाना था। इसकी प्रतिक्रियास्वरूप आदिवासी समुदाय और अंग्रेज सरकार के मध्य १९ वीं सदी में कई छापामार लड़ाइयाँ हुईं। बिपिनचंद्र के अनुसार "भ्रष्टाचार और अत्याचार के हथियारों से लैश औपनिवेशिक शासन ने जब आदिवासियों के इलाकों में घुसपैठ की, तो उनमें घोर असंतोष पैदा होना स्वाभाविक ही था। आमतौर पर आदिवासी शेष समाज से अपने को अलग- अलग रखते थे। लेकिन ब्रिटिश राज उनको पूरी तरह औपनिवेशिक घेरे के भीतर खींच लाया।आदिवासी लोग जो अब तक आंतरिक स्वायत्तता की स्थिति में रहते थे, ब्रिटिश प्रमुख की स्थापना से वह समाप्त हो गयी। यह स्थिति आदिवासियों को स्वीकार न थी और धीरे- धीरे उनके विरोध पनपने लगे।
अंग्रेज प्रशासकों की मान्यता थी कि आदिवासी लोग अपनी सरकारों के अधीन हीन अवस्था में जीवन व्यतीत कर रहे थे, किन्तु आदिवासियों का अपने मुखिया पर पूर्ण विश्वास था। परिणामस्वरूप १८१७ में चेरो ने और १८१९ में मुंडाओं ने उन जमींदारों के समर्थन में विद्रोह कर दिया, जिन्होंने अंग्रेजों ने शक्तियाँ हस्तगत कर ली थीं। अंग्रेजो ने प्रशासनिक एवं सामरिक आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए आदिवासी क्षेत्रों में पुलिस थाने स्थापित किये, सड़कें बनवाईं, सैनिक छावनियाँ स्थापित कीं और उन लोगों को कंपनी कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य किया गया। सरकार द्वारा आदिवासी क्षेत्रों में नियुक्त राजस्व अधिकारियों एवं पुलिस कर्मियों की उन लोगों के प्रति सहानुभूति नहीं थी, बल्कि उनकी शोषण मनोवृति से ये लोग परेशान हो गये थे। दूसरी ओर औपनिवेशिक सरकार ने उन क्षेत्रों के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया। जिसका प्रतिकार आदिवासी समूहों द्वारा किया गया।
स्टीफन फक्स, जगदीश चन्द्र झा आदि विद्वानों ने जनजातियों के विद्रोह का प्रमुख कारण आर्थिक माना है। आदिवासी अपने जीवन निर्वाह के लिए वनों से शहद, फल, लकड़ी, और बांस आदि प्राप्त करते थे। बांस का समान बनाना, पशुओं का शिकार, तथा मछली पकड़ना इनका प्रमुख उद्योग थे। सरकार ने वनों को सरकारी सम्पत्ति घोषित किया और अब आदिवासियों को जंगल से अन्य वन उपज संग्रह करने की स्वतन्त्रता नहीं रही। इस प्रकार जंगल कानूनों के जरिये परम्परागत अधिकारों का अपहरण हुआ, जिनसे आदिवासियों की कठिनाइयाँ बढ़ीं। आदिवासी समूहों में खौड़ (उड़ीसा), संथाल (राजमहल पहाड़ियाँ), मुंडा, कोल (छोटानागपुर ) एवं भील (महाराष्ट्र व राजस्थान ) आदि प्रमुख थे।
प्रो. विपिनचंद्र ने लिखा है कि आदिवासी इलाकों में बाहरी लोगों और औपनिवेशिक राज की घुसपैठ ने उनकी पूरी सामाजिक व्यवस्था को ही उलट-पुलट दिया। उनकी जमीन उनके हाथ से निकलती गई और वे धीरे- धीरे किसान मज़दूर होते चले गये। जंगलों से उनके गहरे रिश्ते को भी औपनिवेशिक हमले ने तोड़ दिया। इसके पहले वे भोजन ईंधन और पशुओं के लिए चारा आदि जंगलों से जुटाते थे, जहाँ उनका जीवन पूरी तरह स्वच्छंद था। खेती के उनके अपने तरीके थे। वे जगह बदल- बदल कर 'झूम ' और 'पडु' विधियों से खेती किया करते थे। यानि जब उन्हें लगता था कि उनके खेत अब उपजाऊ नहीं रह गये तो वे जंगल साफ कर खेती के लिए नई जमीन तैयार कर लेते थे। लेकिन औपनिवेशिक राज ने सब कुछ बदल दिया और जंगली भूमि, वन उत्पादों व गांवों की जमीन के इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगा दी गयी।आदिवासी इलाकों में ब्रिटिश सरकार द्वारा नवीन आबकारी कर वसूल किये जाने लगे। यहाँ तक कि नमक व अफीम पर भी कर लगाये गये। १८२२ में चावल की कम नशीली शराब पर उत्पादन शुल्क लगा दिया गया जिसे आदिवासी अपने प्रयोग के लिए तैयार करते थे और इसी आधार पर १८३० में प्रति घर के हिसाब से चार आना कर वसूल किया जाने लगा। १८२७ में पोस्त की खेती जबरन शुरू की गयी। इससे बेचैनी बढ़ती गयी।
भू राजस्व के नये तरीकों (जैसे -स्थायी, रैयतवारी ,महालवाड़ी) ने बाज़ार अर्थव्यवस्था 'को जन्म दिया तथा पुरानी प्रचलित नीति जैसे चारागाह और वनों के परम्परागत सामुदायिक अधिकारों को नष्ट कर दिया गया। प्रो बिपिनचंद्र ने जिक्र किया है कि लगान वसूलने वाले लोग और महाजनों जैसे सरकारी बिचौलिए और दलाल आदिवासी का शोषण तो करते थे, जबरन बेगार भी करते थे।[6] इस तरह की सामाजिक विषमता कोई नया तथ्य न थी, किन्तु साम्राज्यवाद ने नए तरह का ध्रुवीकरण पैदा कर दिया। यह ध्रुवीकरण अब वैसे लोगों के बीच हो गया था जो भूमि हथिया चुके थे। दूसरी ओर वह वर्ग था, जिनके पारम्परिक अधिकार छीने जा रहे थे। इस विषमता ने नई समस्याओं को जन्म दिया। आमीर-गरीब के नए वर्ग विभाजन के कारण तनाव बढ़ रहा था और आदिवासी क्षेत्रों में बाहर से जाकर बसने वाले साहूकार और महाजनों द्वारा निर्मम शोषण इसका प्रमुख कारण था। अंग्रेजों ने भारतीयों की सामाजिक व्यवस्था एवं रीतिरिवाजों में हस्तक्षेप किया। विलियम बैटिंग ने सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए कानून बनाये जो जनजाति के लिए भी प्रभावी थे। आदिवासियों में इसका विरोध होने लगा। उड़ीसा में नर बलि रोकने के प्रयास का विरोध किया, भीलों ने भी डाकन प्रथा रोकने का प्रतिकार किया था। दूसरी ओर ईसाई धर्म प्रचारक आदिवासी क्षेत्रो में जाने लगे। वस्तुतः ईसाई मिशनरियों की घुसपैठ को ब्रिटिश शासकों ने बढ़ावा दिया।
संथालों के विद्रोहों का जिक्र करते हुए कहा गया है कि वे लोग रेलवे लाइन का कार्य शुरू होने से भी आतंकित हो गये. यहाँ तक कि जो लोग इस कार्य में मज़दूरी कर रहे थे उनका भी यही अनुमान था कि इन्हें ठगा जा रहा है।यद्यपि आदिवासियों द्वारा औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध किये गये विद्रोहों को सफल नहीं होने दिया, किन्तु इन विद्रोहों ने लोगों में एक जागृति की भावना पैदा की। यहाँ हम प्रमुख आदिवासी विद्रोहों की चर्चा करेंगे।
1 खासी विद्रोह (1829)
बंगाल प्रदेश के पूर्व में जयंतियाँ और पश्चिम में गारो पहाड़ियों के बीच 3500 वर्ग मील के पहाड़ी अंचल में बहादुर व लड़ाकू खासी लोग निवास करते थे। 1765 में सिलहट इलाके पर अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो गया था। अंग्रेजों के अधिकार से पूर्व खासियों के तीस अलग-अलग शक्ति सम्पन्न राज्य थे। प्रत्येक राज्य की अपनी एक परिषद थी और परिषद की अनुमति के बिना राजा कोई कार्य नहीं कर सकता था। डेविड स्काट का सहायक कैप्टेन ह्नइट उनकी परिषद की एक ऐसी ही बैठक में उपस्थित था। उनकी व्यवस्थित औचित्यपूर्ण और अनुशासन पूर्ण दो दिन की बहस और निर्णय को देखकर उसने स्वीकार किया कि किसी यूरोपीय समाज में इससे अलग उत्तम पद्धति उसने नहीं देखी। उनकी इस जनतंत्रात्मक व्यवस्था में प्रत्येक नागरिक को स्वतंत्रता थी। ब्रिटिश साम्राज्यवादियों ने ऐसी जाति को पराधीन बनाने का प्रयास किया तब तक उनका विद्रोही बन जाना स्वाभाविक था। प्रथम बर्मा युद्ध के उपरांत ब्रह्मपुत्र नदी घाटी पर 1824 में अँग्रेजों का अधिकार हो गया, इस क्षेत्र को सिलहट से जोड़ने के लिए एक सड़क बनाने की योजना बनाई गई। असम और सिलहट को खासी पहाड़ियों से होकर जोड़ने वाली सड़क का समाजिक महत्व था। डेविड स्काट की मान्यता थी कि इस अंचल में अंग्रेजों का प्रभाव स्थापित हो जाने से सिलहट की सीमा पर अशांति पैदा करने वाले खासिया सरदार डट जायेंगे, उन पर ब्रिटिश सरकार का आतंक छा जायेगा।
1827 में अनेक खासी मुखियाओं से वार्ता की गई, किंतु अंग्रेजों के अहंकार ने खासियों में असंतोष पैदा किया। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों द्वारा खासी मजदूरी की जबरन भर्ती का भी विरोध किया। सड़क दक्षिण असम के बारदुआर से प्रारम्भ होनी थी। छतरसिंह को ब्रिटिश सरकार ने इस प्रवेश का जमींदार नियुक्त कर रखा था, उसने सड़क बनाने की अनुमति प्रदान कर दी और इस कार्य में वांछित सहयोग का भी वायदा किया। किंतु ननक्लों के प्रमुख तीरथसिंह जो अंग्रेजों का एवं छत्तरसिंह का विरोधी था खासियों पर काफी प्रभाव था। उसने सड़क निर्माण तथा ननक्लों में अंग्रेजों के विश्राम के लिए बने सेनीटोरियम एवं बंगलों आदि के निर्माण को अपनी जाति के सादे जीवन पर आघात पहुँचाने वाला कार्य माना। खासी पहाड़ियों के छत्तीस छोटे-छोटे राज्यों के राजाओं के तिरूतसिंह को खासी क्षेत्र एवं असम से अंग्रेजों को निष्कासित करने में सहायता देने का आश्वासन दिया। 5 मई 1829 को मोलिम (खासिया राज्य) के राजा बारमानिक के निर्देश पर खासियों ने विद्रोह कर दिया। उसके इशारे पर गारो युवकों के दल ने अंग्रेजों और बंगाली अधिकारियों को ननक्लों के सेनीटोरियम में घेर लिया। इस घटना से तनाव बढ़ गया और लेफ्टिनेंट बेडिग फील्ड मारा गया, अंग्रेज इतिहासकारों के अनुसार बेडिग फील्ड की एक कान्फरेंस में बुलाया गया और ज्यों ही वह पहुँचा उसे मार दिया गया। बाद में वे इस क्षेत्र के पॉलिटिकल एजेंट डेल्डि स्काट को पकड़ने के लिए चेरापूंजी की ओर बढ़े। इसके साथ ही समस्त खासी क्षेत्र में विद्रोह भड़क उठा। हजारों खासी लोग इस दल में सम्मिलित हो गए। गारो पहाड़ियों के इलाके में भी विद्रोह फैल गया। किंतु अंग्रेजों ने धीरे-धीरे स्थिति पर नियंत्रण कर लिया और एक के बाद एक खासियों के गावों को नष्ट कर दिया। अंग्रेजों ने आर्थिक नाकेबंदी का भी प्रयास किया। लगभग चार वर्ष तक दोनों पक्षों में छिटपुट संघर्ष होता रहा। जनवरी 1833 ई. में तिरूतसिंह ने उसे मृत्युदंड देने की शर्त पर आत्मसमर्पण कर दिया। अन्य खासी राजाओं ने भी इस तरह आत्मसमर्पण कर दिया एवं खासी विद्रोह दबा दिया गया।
2 खामती विद्रोह
खामती जाति का मूल निवास बर्मा में इरावदी नदी घाटी का बोरखामती प्रदेश था। वहाँ से चलकर आसाम में अहोम राजा की अनुमति से पूर्वाचल में बस गये और वहाँ छोटा-सा राज्य स्थापित कर लिया। 1826 की संधि द्वारा खामती लोगों को ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने शासक के अधीन रहने की अनुमति प्रदान की तथा 200 सैनिक रखने की स्वीकृति भी मिल गई। 1830 में सिंगफो जाति ने असम के पूर्वी भाग में अंग्रेजों पर हमला किया था। उस समय खामती लोगों ने अंग्रेजों का साथ दिया। किंतु न्याय व्यवस्था, राजस्व वसूली अंग्रेज अधिकारियों को सौंप देने एवं अनेक टैक्स लगा दिये जाने से, खामती सरदार खता गोहाई, तओबा ओटाई, रूनू ओटाई, कक्पटेन ओटाई आदि अंग्रेजों से असंतुष्ट हो गये। उन्होंने सिंगफी सरदार को अंग्रेजों से समझौता न करने के लिए उकसाया। 1839 में खामती लोगों ने अचानक अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया और सदियो स्थित पूरी अंग्रेज रेजीमेंट को साफ कर दिया। मेजर ह्नाइट मारा गया और बरेक में रखी बंदूकें एवं तोपें आदि नष्ट कर दी गईं। कंपनी सरकार ने एक अलग सेना विद्रोहियों का पता लगाने हेतु भेजीं और विद्रोही सरदारों को गिरफ्तार करने के लिए बड़े-बड़े पुरस्कारों की घोषणा की गयी। अंत में, 1843 में सरदारों की आपसी फूट ने खामती लोगों को आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य किया। अंग्रेजों ने बाद में खामती लोगों को अलग-अलग बसाया जिससे वे पुन: संगठित न हो सके।
3 नागा विद्रोह
सामान्यत: जिन्हें हम नागा नाम से जानते हैं एक प्रजाति का द्योतक न होकर विविध उपजातियों का मिश्रण है उनकी अलग-अलग भाषा, रीतिरिवाज एवं नामों से इस तथ्य का अभिज्ञान होता है। कंपनी सरकार नागा प्रदेश पर भी अपना आधिपत्य स्थापित करना चाहती थी इसलिए थेम्बर्टन एवं जेनकिंस ने नागा लोगों के बारे में विस्तृत जानकारी हासिल की। 1835 और 1851 के मध्य नागा पहाड़ी पर अंग्रेजों ने दस बार चढ़ाई की।अंग्रेजी हमले के प्रतिक्रिया स्वरूप 1849 में खोनोमा और मेजुमा गाँव के नागाओं ने दीमापुर के दक्षिण समगुतिंग की पुलिस चौकी के दरोगा भीमयक को मार दिया। 1850-54 में आक्रमण करके अंग्रेजों ने नागाओं के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया, किंतु उन्होंने भयभीत होकर समर्पण नहीं किया, अपितु वे अंग्रेजी क्षेत्र पर बराबर छुटपुट हमले करते रहे। 1866 में ब्रिटिश सरकार ने आगामी नागाओं के क्षेत्र पर अधिकार कर जिला घोषित किया तथा समगुतिंग में इसका कार्यालय बनाया। इसी तरह 1875 में लहोटा नागाओं के इलाके पर अधिकार कर लिया एवं 1889 में अवो नागाओं का क्षेत्र भी हस्तगत कर लिया।
4 कोल विद्रोह
बंगाल के छोटा नागपुर क्षेत्र में कोल जनजाति निवास करती है। इस जाति की अनेक शाखायें हैं जिनके अलग-अलग मुखियाओं के स्वतंत्र राज्य थे। इनका “मुख्या” राजा कहा जाता था। ताराचंद ने लिखा है कि कोलो ने इसलिए विद्रोह किया (1831-32) कि उनके गाँव को कोल मुखियों के हाथ से छीन कर प्रदेशी सिक्खों और मुसलमानों को दिया जा रहा था। छोटानागपुर के आदिवासी बाहरी लोगों को अपनी स्वतंत्रता में बाधक मानते थे। इस विद्रोह का एक अन्य कारण भूमि प्रबंध लगान वसूली का तरीका एवं साहूकारी व्यवस्था भी थी। कहा जाता है कि दरअसल भूमि संबंधी असंतोष ही इसका मूल कारण था। ‘हो’ और मुण्डों के बीच पुरानी ग्राम्य समाज व्यवस्था चली आ रही थी। सात से बारह गाँवों पर एक पीर होता था। इसका प्रधान या नेता “मानकी” कहलाता था। वह इन गाँवों के लगान के प्रति सरकार या जमींदार के प्रति जिम्मेदार था। वह गाँवों के मुखियों के कार्यों की निगरानी करता था। ये मुखिया ‘मुंडा’ कहलाते थे। ये मुंडे पुलिस का भी काम करते और अपने-अपने गाँवों का प्रतिनिधित्व करते थे।
अंग्रेजों ने कर अदा करने के लिए आदिवासी राजाओं को बाध्य कर दिया। कर का भुगतान न किए जाने पर राजा को बदलना आम बात थी। दूसरी ओर आदिवासी अपने क्षेत्र में विदेशियों को प्रवेश करने नहीं देना चाहते थे। कोल प्रजाति की एक शाखा ‘होम’ ने अपने प्रदेश में बाहरी व्यक्तियों को घुसने से रोकने के लिए अपनी सीमाओं पर प्रबंध किये। पोराइट के राजा ने विवश होकर कर देना स्वीकार कर लिया था। परंतु होश ऐसा नहीं चाहते थे। 1820 में पौलिटिकल एजेंट के कोल्हन और चौबीसा क्षेत्र में प्रवेश करने पर उसका सशस्त्र विरोध उनकी उपर्युक्त नीति का अंग था। 1827 में उनके अनेक ग्राम जला कर नष्ट कर दिये गये और उन्हें जमींदारों को कर देने, कंपनी की प्रभुसत्ता स्वीकार करने को विवश किया। जमींदारों की लगान का भुगतान न करने पर जमीनें नीलाम की जाने लगीं और मैदानी भाग से आए लोगों को जमीनों पर अधिकार मिलने लगा। आदिवासियों पर उनके द्वारा निर्मित शराब पर उत्पादन शुल्क थोप दिया गया और उन्हें पोस्त की खेती करने को बाध्य किया गया। कंपनी कानूनों का उल्लंघन करने पर आदिवासियों को कचहरियों में ले जाया जाने लगा। इन परिस्थितियों ने कोलियरों को संघर्ष करने के लिए मजबूर किया। विद्रोह का एक अन्य कारण आदिवासी स्त्रियों के साथ दुर्व्यवहार भी रहा है। ऐसा सभी धर्म की स्त्रियों के साथ किया जाता था।
उपर्युक्त घटनाओं से कोलों का असंतोष तक पहुँच गया। रांची, सिंहभूम, पालामड और मानभूमि आदि जिलों के सभी आदिवासियों ने 1831 में एक साथ विद्रोह कर दिया। विद्रोह का प्रारम्भ हिंसा और लूटपाट से हुआ। कहा जाता है कि इस विद्रोह में लगभग एक हजार गैर आदिवासियों को मार डाला गया। अंग्रेजी सेना ‘रामगढ़ बटालियन’ विद्रोह का दमन करने के लिए भेजी गई और दो माह तक संघर्ष के बाद 1832 में बड़ी कठिनाई से विद्रोह को दबाने में सफलता मिली। जमींदारों ने भी इसे दबाने हेतु अपनी सेनाएँ भेजी थीं। संघर्ष में आदिवासी नेता बुप्लो भगत, उसके बेटे तथा 150 अन्य आदिवासी मारे गये। कंपनी सेना के 16 लोग मरे तथा 44 घायल हुए। विद्रोहियों के एक वर्ग ने तब भी समर्पण नहीं किया था। अत: 1836 एवं 1837 में पुन: उनके विरुद्ध सेना भेजी गई।
.5 खौड़ विद्रोह
उड़ीसा के निकटवर्ती प्रदेश खौड़माल क्षेत्र के आदिवासी खौड़ कहे जाते हैं। लगभग 800 वर्ग मील क्षेत्र में खौड़ लोगों के निवास हैं। 1846 से 1855-56 के मध्य गुमसर के खौड़ और बौड़ तथा पार्लियाखेमदी के सवार लोगों ने विद्रोह किये। इन आदिवासी आंदोलनों का मुख्य कारण पाश्चात्य इतिहासकारों के अनुसार अंग्रेज प्रशासकों द्वारा खौड़ों में प्रचलित नरबलि तथा ‘मोरिया’ को रोकने का प्रयास था। जिन मनुष्यों की बलि दी जाती थी वे “मोरिया” कहलाते थे। कहा गया है कि बदलती हुई परिस्थितियों में बने दबावों और अनिश्चितता ने खौड़ों को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वे “मोरिया” के जरिये भगवान को खुश कर सकें ताकि हल्दी एवं अन्य फसलें अच्छी हो सकें। यह एक प्रकार की पृथ्वी पूजा का अंग था। कहा गया है कि सरकार इस प्रथा को रोकने के लिए कृत संकल्प थी। किंतु तथ्यात्मक स्थिति कुछ और ही थी। वस्तुत: अपने इलाके में बाहर से बसने वाले व्यक्तियों की संख्या में लगातार वृद्धि के कारण खौड़ों में असंतोष बढ़ रहा था। वे किसी को राजस्व भुगतान नहीं करते थे। खौड़ों का क्षेत्र बोद और दसपतला रियासतों के अधीनस्थ माना जाता था। किंतु खौड़ न तो बोद और दसपलता राजाओं को एवं न ही अंग्रेजों को अपना स्वामी मानने को तैयार थे। उनको यह आशंका थी कि अंग्रेज उनकी जमीन हड़प लेंगे, बेजार ली जाएगी और उनसे नए टैक्स वसूल किए जाएंगे।
सम्भवत: कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में 1846 के प्रारम्भ में उन्होंने विद्रोह कर दिया। एक दिन अंग्रेज कप्तान मेकफरसन के शिविर पर सहसा आक्रमण किया। चक्र बिसोइ उनका नेतृत्व करने लगा तथा बड़ी संख्या में लोगों ने आंदोलन में भाग लिया। खौड़ विद्रोह को दबाने के लिए 1840 में मद्रास रेजीमेंट का दस्ता भेजा गया। खौड़ों के गाँव आग के हवाले कर दिए गए। किंतु खौड़ों ने हिम्मत नहीं हारी, डटकर अंग्रेजों का मुकाबला किया। 1855 में खौड़ आंदोलन को दबा दिया गया।
6 मुंडा विद्रोह
मुंडा आदिवासियों का विद्रोह 1874 से 1901 के मध्य हुआ। 1895 के बाद इसका नेतृत्व बिरसा मुंडा ने किया। अत: इसे बिरसा मुंडा विद्रोह भी कहा जाता है। दक्षिण बिहार के छोटा-नागपुर इलाके के लगभग 400 वर्ग मील क्षेत्र में मुंडा निवास करते थे। प्रो. बिपिनचंद्र ने लिखा है कि मुंडा जाति में सामूहिक खेती का प्रचलन था, लेकिन जागीरदारों, ठेकेदारों, बनियों और सूदखोरों ने सामूहिक खेती की परंपरा पर हमला बोला। मुंडा सरदार 30 वर्ष तक सामूहिक खेती के लिए लड़ते रहे। मुंडा अंचल की जमीनें मुंडा लोगों के हाथ से निकल कर साहूकारों एवं जमीदारों के हाथ में जा रही थीं। ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था ने उन्हें कृषक से मजदूर बनने को बाध्य किया। इस कारण उनमें धीरे-धीरे असंतोष बढ़ने लगा। ब्रिटिश शासन जमींदारों एवं साहूकार वर्ग के उत्थान का एक महत्वपूर्ण कारक था। इस काल में इन वर्गों को आदिवासियों के शोषण की पूरी तरह छूट थी। मुंडों ने अपने सरदारों के नेतृत्व में इन लोगों के विरुद्ध आंदोलन शुरू किया। उनका यह उपद्रव “सरजमी लड़ाई” के नाम से प्रसिद्ध था। शीघ्र ही तिरसा ने अंग्रेजी भूराजस्व व्यवस्था का विरोध करना शुरू किया। सुरेभासिंह की मान्यता है कि भूमि की समस्या मुंडाओं के असंतोष तथा विद्रोह का मूल कारण थी। स्थायी बंदोबस्त ने मुंडाओं को भी प्रभावित किया। वनों से लकड़ी काटने के प्रतिबंध संबंधी कानून ने उन्हें अपने परंपरागत अधिकार से वंचित कर दिया था। जंगल साफ करके खेती नहीं की जा सकती थी। वनों में अपने पालतू जानवरों को चराने पर प्रतिबंध था। इस प्रकार सुरेभासिंह के विचार से उनका विद्रोह मुख्य रूप से सामाजिक आर्थिक शक्तियों के विरुद्ध था। अत: बिरसा विद्रोह को केवल एक धार्मिक आंदोलन नहीं कहा जा सकता। इस विद्रोह में महिलाओं की भूमिका भी महत्वपूर्ण थी।
7 भील विद्रोह
महाराष्ट्र के वन प्रदेशों, गुजरात, मध्यप्रदेश एवं दक्षिणी राजस्थान में भील जनजाति बड़ी संख्या में निवास करती है। 1857 के पूर्व भीलों के दो अलग-अलग विद्रोह हुए। महाराष्ट्र के खानदेश में भील काफी संख्या में निवास करते हैं। इसके अतिरिक्त उत्तर में विंध्य से लेकर दक्षिण पश्चिम में सहाद्रि एवं पश्चिमी घाट क्षेत्र में भीलों की बस्तियाँ देखी जाती हैं। 1816 में पिंडारियों के दबाव से ये लोग पहाड़ियों पर विस्थापित होने को बाध्य हुए। पिंडारियों ने उनके साथ मुसलमान भीलों के सहयोग से क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया। इसके अतिरिक्त सामंती अत्याचारों ने भी भीलों को विद्रोही बना दिया। 1818 में खानदेश पर अंग्रेजी आधिपत्य की स्थापना के साथ ही भीलों का अंग्रेजों से संघर्ष शुरू हो गया। कैप्टेन बिग्स ने उनके नेताओं को गिरफ्तार कर लिया और भीलों के पहाड़ी गाँवों की ओर जाने वाले मार्गों को अंग्रेजी सेना ने सील कर दिया, जिससे उन्हें रसद मिलना कठिन हो गया। दूसरी ओर एलफिंस्टन ने भील नेताओं को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया और उन्हें अनेक प्रकार की रियायतों का आश्वासन दिया। पुलिस में भर्ती होने पर अच्छे वेतन दिये जाने की घोषणा की। किंतु अधिकांश लोग अंग्रेजों के विरुद्ध बने रहे। 1819 में पुन: विद्रोह कर भीलों ने पहाड़ी चौकियों पर नियंत्रण स्थापित कर लिया। अंग्रेजों ने भील विद्रोह को कुचलने के लिए सतमाला पहाड़ी क्षेत्र के कुछ नेताओं को पकड़ कर फाँसी दे दी। किंतु जन सामान्य की भीलों के प्रति सहानुभूति थी। इस तरह उनका दमन नहीं किया जा सका। 1820 में भील सरदार दशरथ ने कम्पनी के विरुद्ध उपद्रव शुरू कर दिया। पिण्डारी सरदार शेख दुल्ला ने इस विद्रोह में भीलों का साथ दिया। मेजर मोटिन को इस उपद्रव को दबाने के लिए नियुक्त किया गया, उसकी कठोर कार्रवाई से कुछ भील सरदारों ने आत्मसमर्पण कर दिया। 1822 में भील नेता हिरिया ने लूट-पाट द्वारा आतंक मचाना शुरू किया, अत: 1823 में कर्नल राबिन्सन को विद्रोह का दमन करने के लिए नियुक्त किया। उसने बस्तियों में आग लगवा दी और लोगों को पकड़-पकड़ कर क्रूरता से मारा। 1824 में मराठा सरदार त्रियंबक के भतीजे गोड़ा जी दंगलिया ने सतारा के राजा को बगलाना के भीलों के सहयोग से मराठा राज्य की पुनर्स्थापना के लिए आह्वान किया। भीलों ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया एवं अंग्रेज सेना से भिड़ गये तथा कम्पनी सेना को हराकर मुरलीहर के पहाड़ी किले पर अधिकार कर लिया। परंतु कम्पनी की बड़ी बटालियन आने पर भीलों को पहाड़ी इलाकों में जाकर शरण लेनी पड़ी। तथापि भीलों ने हार नहीं मानी और पेडिया, बून्दी, सुतवा आदि भील सरदार अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करते रहे। कहा गया है कि लेफ्टिनेंट आउट्रम, कैप्टेन रिगबी एवं ओवान्स ने समझा बुझा कर तथा भेद नीति द्वारा विद्रोह को दबाने का प्रयास किया। आउट्रम के प्रयासों से अनेक भील अंग्रेज सेना में भर्ती हो गये और कुछ शांतिपूर्वक ढंग से खेती करने लगे। उन्हें तकाबी ऋण दिलवाने का आश्वासन दिया।