Monday, 3 July 2017

आदिवासियों के अधिकारों का संरक्षण और प्रवर्तन के लिए विधिक सेवाऐं योजना

पृष्ठभूमि

हालाँकि 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जनजातियों की कुल जनसंख्या 10,42,81,034 है, जो कि देश की जनसंख्या की 8.6 प्रतिशत है, भारत में जनजातीय समुदाय अत्यंत विविध् एवं विजातीय है। बोली जाने वाली भाषाओं, जनसंख्या का आकार, रहन-सहन के ढंग को लेकर इनमें बहुत प्रकार की विविधताएँ  हैं। भारत में वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार अनुसूचित जातियों के रूप में अधिसूचित  विशिष्ट समूहों की संख्या  705 है। उत्तर-पूर्वी राज्य अपनी स्वयं की विविधताओं के कारण सजातीय खंड नहीं हैं। वहां लगभग 220 जातीय समूह है तथा उतनी ही संख्या  में भाषा एवं बोलियाँ हैं। यह समूह मोटे तौर पर तिब्बती-बर्मन, माँन-खमेर तथा भारतीय-यूरोपी नामक तीन मुख्य  समूहों में वर्गीकृत किये जा सकते है।
जनजातीय समूहों में कुछ जनजातियाँ अपनी अत्यधिक दुर्बलता के कारणवश विशेष रूप से अति संवेदनशील जनजातीय समूह पी. वी. टी. जीद्ध पहले प्राचीन जनजातीय समूह के रूप में जाने जाने वालीद्ध की श्रेणी में रखी गई हैं। वर्तमान में पी.वी.टी.जी. में 75 जनजातीय समूह शामिल हैं जिनकी पहचान इस रूप में निम्नलिखित मानदंडों के आधार  पर की गयी है। 1)वन आश्रित आजीविका, 2) कृषि पूर्व जीवन स्तर, 3) स्थिर एवं घटती जनसंख्या, 4)निम्न साक्षरता दर तथा 5) जीविका आधरित अर्थ व्यवस्था। वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार इन 75 पी. वी. टी. जी. की कुल जनसंख्या का अधिकांश भाग छह राज्यों महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, आन्ध्रप्रदेश एवं तमिलनाडू में रहता है। जनजातियों में पी.वी.टी.जीस. पर उनकी संवेदनशीलता के कारण मुख्य  रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है।
स्वतंत्रता तक जनजातीय जनसंख्या राष्ट्रीय परिदृश्य से अपेक्षाकृत एकांत में रही तथा सुदूर व विषम जंगली क्षेत्रों  में प्रायः आत्मनिर्भर जीवन व्यतीत किया। भारत में उप निवेशक प्रशासनिक तंत्र का जनजातियों से संपर्क मुख्य रूप से अधिकार वादी व शोषक प्रकृति के रूप में हुआ। वे उनको पृथक छोड़ने में तथा राष्ट्रीय जीवन की मुख्य  धारा से न जोड़ने में विशेष रूप से रुचि थे।
स्वतंत्रता के पश्चात, भारतीय संविधान  ने जनजातीय लोगों को विशेष दर्जा देने के लिए बहुत से प्रावधान  अपनाया तथा संसद में विभिन्न रक्षात्मक कानून बनाकर उनके हितों को सुरक्षित रखने हेतु सजग प्रयास किये। राष्ट्रीय योजना आयोग ने विकास हेतु कदम उठाते हुए जनजातीय उप योजना पद्धति को अपनाया तथा पंचायती राज संस्था के अंतर्गत पंचायत पंचायत के प्रावधान (अनुसूचित क्षेत्रों  में विस्तार) अधिनियम, 1966 (पेसा) (पी.ई.एस ए.) कानून बनाया।
जनजातियों की सामाजिक आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिए किये गए इन सभी प्रयासों के बावजूद भी यह एक सत्य है कि अनुसूचित जनजातियों का जीवन-स्तरों में केवल मामूली सुधार आया है। अनुसूचित जनजाति का मानव विकास सूचकांक (एच. डी. आई.) बाकी जनसंख्या की तुलना में बहुत कम है। साक्षरता दर में अंतर अधिक  है। गरीबी रेखा के नीचे अन्य समुदायों की अपेक्षा अनुसूचित जनजातीय परिवार अधिक हैं। आरक्षण के प्रावधान  के बावजूद सरकारी नौकरियों में उनका प्रतिशत उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं है । इस प्रकार उनकी दशा बाकी जनसंख्या की अपेक्षा बहुत खराब है तथा वे विकास के परिकल्पित स्तर पर पहुँचने में अक्षम हैं जहाँ से वे तेजी से बढती अर्थ व्यवस्था द्वारा उपलब्ध  कराये जा रहे अवसरों का लाभ उठा सकें।
इसी पृष्ठभूमि में नालसा ने जनजातीय लोगों के लिए योजना बनाने की आवश्यकता महसूस की। इसे सरल बनाने हेतु, मामले का अध्ययन करने के लिए व सुझाव प्रस्तुत करने के लिए एक समिति गठित की गयी थी। समिति ने दिनांक 09.08.2015 को विश्व जनजातीय दिवस पर माननीय कार्यपालक अध्यक्ष, नालसा को एक विस्तृत रिपोर्ट सौंपी। यह योजना उसी रिपोर्ट पर आधरित है।
यह योजना नालसा (आदिवासियों के अधिकारों का संरक्षण और प्रवर्तन के लिए विधिक सेवाऐं) योजना, 2015 कहलाएगी।

योजना का उद्देश्य

योजना का लक्ष्य भारत में जनजातियों तक न्याय की पहुँच को सुनिश्चित करना है। न्याय तक पहुँच की अपने तमाम अर्थो में अर्थात अधिकारों तक पहुँच, लाभ, विधिक  सहायता, अन्य विधिक  सेवाएँ, इत्यादि को सुगम बनाता है ताकि संविधान के सामाजिक आर्थिक एवं राजनैतिक एवं न्याय को सुनिश्चित करने के वचन का देश में जनजातियों द्वारा भी अर्थ पूर्ण रूप से अनुभव कर सके I  जनजातियों को कई विधिक अधिकार दिए गए है -
  • अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 (FRA)
  • अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, अधिनियम,1989
  • निःशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा (आरटीई) अधिनियम, 2009
  • भूमि अर्जन, पुनर्वासन और पुनर्व्यवस्थापन में उचित प्रतिकर और पारदर्शिता अधिकार  अधिनियम, 2013
  • पंचायत के प्रावधान  अनुसूची क्षेत्रों  में विस्तारद्ध अधिनियम, 1996 (PESA)
  • भारतीय संविधान  की पांचवी एवं छठी अनूसूची।
ये प्रावधान कठोरतापूर्वक लागू नहीं किये जाते, जिसके चलते उनके विधिक  अधिकार  का उल्लंघन होता है। ऐसे उल्लंघन जनजातियों के पिछड़ेपन का मुख्य  कारण है। इस योजना का आशय यह है कि इन विधिक  अधिकारों का उल्लंघन नही हो।
भाग I
जनजातियों की समस्याओं का संक्षिप्त विवरण

भेद्धयता समस्याएँ

  • जनजातियों में साक्षरता की कमी एक मुख्य  समस्या है। परिणाम स्वरूप जनजातियाँ अपने मौलिक विधिक  एवं संवैधानिक अधिकारों से अवगत नही रहतीं। वे अपने कल्याण हेतु सरकार द्वारा चलाये गए कल्याणकारी योजनाओं का ज्ञान भी नहीं रखते जिसके चलते वे उनमें शामिल भी नहीं होते।
  • समस्याओं के समाधन हेतु सरकार द्वारा लायी गयी योजनाओं का लागू नही किया जाना एक अन्य बड़ी चिंता का विषय है। तथापि जनजातियों के कल्याण हेतु कार्यकलापों का लागू न किया जाना जनजातीय लोगों में हुनरमंद लोगो की कमी के कारण भी है।
  • कई सशस्त्र विवाद भी समकालीन भारत में केन्द्रीय क्षेत्र  से लेकर उत्तर-पूर्व तक जनजाति क्षेत्रों  के बड़े भागों को प्रभावित करते है जिसके चलते विधिक  एवं लाभकारी योजनाओं को लागू करने में जटिल समस्याएँ उत्पन्न होतीं है।
  • तत्कालीन वर्षो में राज्य पुलिस एवं अर्ध्-सैनिक बल पर जनजातीय क्षेत्रों  में कथित झूठे मुठभेड़ एवं बलात्कार को सम्मलित करते हुए गंभीर मानव अधिकारों के उल्लंघन का आरोप लगे हैं।
  • बहुत सारे जनजातीय लोग कथित रूप से नक्सली कहकर जेल के अंदर डाले गये हैं। कई मामले ऐसे हुए हैं जिनमें कई दिनों तक लोग जेलों में रहे हैं और चालान में उनका नाम भी नही रहा है। जमानत नही दी जाती क्योंकि मुकदमें गंभीर होते हैं जैसे भारत के विरुद्ध  युद्ध छेड़ना, राजद्रोह और इसी प्रकार के ।
  • अपरिचित न्यायिक कार्यवाहियां जनजातियों को न्यायालय से भयभीत करती हैं यद्यपि वो स्वयं अराजकता से पीड़ित रहते हैं। वो महसूस करते हैं कि अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण अधिनियम), 1989 जैसा कानून जनजातियों की सुरक्षा हेतु नही होतीं।
  • प्रवासी जनजातियाँ सरकार द्वारा चलायी गयी कल्याणकारी योजनाओं तक पहुँचने में कठिनाइयाँ झेलती हैं। कुछ तो पूर्ण रूप से बिल्कुल पहुँच ही नहीं रखते।
  • ऐसे पी.वी.टी.जी की आदिमता एवं पिछड़ेपन के सन्दर्भ में ये पूर्व परिकल्पित भ्रम अथवा धरणाएँ होतीं हैं। सरकारी निकायों के लिए यह आवश्यक है कि वह जनजातियों के पिछड़ेपन एवं बरबरियत तथा इन समुदायों की परम्पराओं और संस्कृति के अवमूल्यन की धरणाओं को दूर करें।
  • कई पी.वी.टी.जी एवं अनुसूचित जनजातियाँ वनवासी होतीं हैं और अपने जीवन हेतु भूमि एवं वन संसाधन पर अधिकांशतः निर्भर होतीं हैं। समय के साथ-साथ उनके निवास आरक्षित वन, सुरक्षित वन घोषित कर दिए गये हैं और उन्हें बिना मुआवजा वहां से हटा दिया जाता है और बेदखल कर दिया जाता है।
  • पी.वी.टी.जी. की सूची में समस्त जनजातियाँ अनुसूचित जनजातियों का दर्जा नही प्राप्त कर सकी हैं जिसके चलते इन जनजातियों की दुर्बलता बढ़ गई है और उन्हें पांचवी अनुसूची एवं पंचायत के प्रावधान (अनुसूची क्षेत्रों  में विस्तार) अधिनियम, 1996 के प्रावधानों  द्वारा दिए गये अधिकार  एवं सुरक्षा नही मिलते।
  • पी.वी.टी.जी. हेतु एफ.आर.ए. बहुत कमजोर अंदाज में लागू किया गया है क्योंकि उनके पास अधिकार  स्पष्ट रूप सेवन विभाग द्वारा परिभाषित नहीं हैं और समझे नही जाते। पी. वी.टी.जी. के अधिकार हेतु प्रावधानों  को लागू करने और विशेष रूप से एफ.आर.ए. के अंतर्गत वास अधिकार  पर कोई अलग-अलग सूचना एवं आंकड़े राष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध  नहीं हैं।
  • उत्तरी-पूर्वी राज्य भूटान, चीन, बर्मा एवं बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों के साथ अंतर्राष्ट्रीय सीमा के बड़े क्षेत्र  रखते है जिसके चलते वहां सीमा पार आतंकवाद, ड्रग तस्करी, शस्त्रा-तस्करी, घुसपैठ, इत्यादि हेतु बहुत उचित बन जाता है।
  • अन्य समस्या जो गंभीर चिंता का विषय है वह मानव तस्करी है। मध्य भारत एवं असम की जनजातियाँ विशेष रूप से तस्करी से ग्रस्त प्रतीत होती हैं।
  • अन्य समस्या यह है कि अभी तक कार्य पालिका एवं न्याय पालिका का विभाजन नहीं हो सका है। छठी अनुसूची के अंतर्गत स्थापित संस्थाएं पारंपरिक विधियों  को लागू करती है जिनकी अपनी समस्याएँ होती हैं क्योकि वो संहिताबद्ध  नही हैं ।
  • उत्तर पूर्व में विद्रोह एवं कानून-व्यवस्था समस्याओं के चलते व्यवस्था पर से विश्वास उठ गया है। जनसमूह में विधि को अपने हाथों में लेने की रूचि पाई जाती है जिसके चलते भीड़-न्याय होती है जिसके कारणवश संदिग्ध् / आरोपी व्यक्तियों के घर नष्ट/बर्बाद कर दिए जाते हैं और उनके परिवार को समाज से अलग कर दिया जाता है जिससे गंभीर सामाजिक समस्याएँ पैदा होती है। रोगियों के इलाज में अपनी कथित लापरवाही के लिए चिकित्सक एवं अस्पताल को भी नही बक्शा जाता है।
  • दूर-दराज के क्षेत्रों  में एवं गाँव में जनजातियों की बड़ी संख्या  अभी तक डायन प्रथा में विश्वास रखती है।
  • जनजातियों के साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं किया जाता जिसके चलते वो स्वयं को मुख्य  धारा से कटे हुए समझते है। उदाहरण स्वरुप अंडमान द्वीप में जरावा जनजातियों से पर्यटकों द्वारा जानवरों जैसा व्यवहार किया जाता है उन्हें ऐसे छेड़ा जाता है और कष्ट दिया जाता है मानो वो बन्दर या जानवर हों तथा उनकी क्रोधजनक  प्रतिक्रिया से आनंद लिया जाता है। ऐसे ही अनुभव बस्तर में भी पूर्व में आम थे जहाँ पर सांस्कृतिक महत्व को कभी नही समझा गया।

भूमि संबंधी समस्याएँ

  • वन एवं पहाड़ियाँ जनजातीय पहचान के मुख्य  स्रोत है। इसी संदर्भ में वन तक नहीं पहुँचने एवं उनकी अपनी भूमि से जबरदस्ती हटा दिए जाने के कारण जनजातियों के जीवन की क्षति समझी जानी चाहिए। जन जातीय समुदायों को उनकी भूमि, वास, जीविका,राजनैतिक व्यवस्था, सांस्कृतिक, मूल्यों एवं पहचान से वंचित करके प्रत्यक्ष रूप से भी बेदखली होती है एवं विकास के लाभों और उनके अधिकारों को न देने के रूप में अप्रत्यक्ष रूप से भी होती है।
  • पुनर्वास एवं पुनुरुद्धार (पी.आर.ए.आर) कार्यक्रम के अंतर्गत भूमि नहीं बदली जाती और पुनः जीविका न्यूनतम ही लगाई जाती है। लगभग समस्त आर एवं आर कालोनियां उचित स्वास्थ्य सुविधाओं, सुरक्षित पीने के पानी, बाजार, विद्यालय एवं यातायात के साधनों से वंचित होती हैं।
  • अदल-बदल की खेती बाड़ी, फल  और फूल, छोटे शिकार, दवा हेतु कंद, चारा, खाना, घर बनाने के लिए सामग्री, पारंपरिक कला, हुनर के लिए खाम सामग्री, जलावन, पत्ता तश्तरी, फल  इत्यादि की बिक्री से आय के रूप में वन निर्भरता महतवपूर्ण है। इस कमी कि क्षतिपूर्ति बेदखली के कारण नही हो पाती और ये खाद्य सुरक्षा को भी प्रभावित करती है।
  • भूमि का एक बड़ा भाग वन क्षेत्रों में आता है। दूर-दराज क्षेत्र  की अधिकतर जनजातियाँ उन जमीनों में बिना किसी अधिकार, हक, एवं हित के वन भूमि पर रहती हैं और उन बेघर जनजातियों हेतु अनुसूचित जनजाति और अन्य परम्परागत वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के अंतर्गत उनके अधिकारों की सुरक्षा एवं प्रवृति हेतु कोई विधिक  प्रावधान  नहीं है।
  • जनजातियों के साथ एक अन्य बड़ी समस्या विकास परियोजनों अर्थात बाँधें का बनाना, वन्य शरण स्थान, खान्य कार्यकलाप, इत्यादि का परिणाम है। यह विकास जन जातियों से भिन्न लोगों की इन क्षेत्रों  में रोजगार हेतु आवागमन बढा देता है व परिणाम स्वरूप वो जनजातियों को वहां से निकल जाने पर मजबूर करते है। इस प्रकार जनजातियाँ विकास परियोजनाओं का लाभ नही उठा सकी हैं।
  • भूमि वियोजन एवं जनजातियों की बेदखली हेतु बड़े महत्वपूर्ण कारणों में से एक बढ़ती हुई ऋण ग्रस्तता है। जनजातियों की ऋणग्रस्तता (वो अधिकतर अत्यधिक  ब्याज के साथ ऋण स्वीकार करने के लिए बहकाए जाते हैं) अधिकतर उन्हें बंधुआ  मजदूरी की परिस्थितियों में धकेल  देती है।
  • आगे, पी.ई.एस.ए. (पेसा) के उल्लंघन भी हुए हैं जो ग्राम सभा को अनुसूचित क्षेत्रों  में भूमि वियोजन रोकने एवं अनुसूचित जनजातियों की अवैध  वियोजित भूमि को लौटाने हेतु अर्थात कार्य करने की शक्ति से सशक्ति करती है। वन भूमि के अभिग्रहण के मामले में, प्रभावित क्षेत्र  की ग्राम सभा से परामर्श करना एवं उनकी स्वतंत्र सहमति प्राप्त करना आवश्यक है। तथापि, अधिकतर ग्राम सभाओं को न तो परामर्श हेतु नोटिस भेजा जाता है व न ही उनकी सहमती हेतु हस्ताक्षर लिए जाते है।
  • भूमि अभिग्रहण, पुनरुद्वार एवं पुनर्वास में उचित मुआवजे एवं पारदर्शिता अधिकार  अधिनियम, 2013 के अंतर्गत जनजातियों को दिया गया मुआवजा कम होता है एवं पुनर्वास पर प्रदान की गयी जीवन परिस्थितियां बहुत घटिया होती हैं।
  • जनजातियों के साथ एक अन्य समस्या यह है कि भूमि में एकल अधिकार  की जगह वो समुदाय अधिकार  में विश्वास रखते है और इस प्रकार भूमि संबंधित मुकदमेबाजी के मामलो में उनके पास स्वामितव का लिखित प्रमाण उपलब्ध  नही होता। इस सन्दर्भ में जनजातियों के दावे अधिकतर मौखिक साक्ष्य पर आधरित होते हैं परिणाम स्वरूप उनके वैयक्तिक अधिकार  स्थापित करने में कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं।

विधिक  समस्याएँ

जनजातियों द्वारा झेली गई विधिक  समस्याएँ निम्न हैं -
  • संरक्षित क्षेत्रों  से विस्थापन से पूर्व जनजातियों के अधिकारों की मान्यतापूर्ण नही होती। जनजातियाँ एफ.आर.ए. के अंतर्गत प्रमाणीकरण एवं दावे के निपटारे से पूर्व ही बेदखल कर दी जाती हैं। इसके चलते उनकी आर्थिक स्थिति और उनके पारंपरिक वन प्रथाओं में कमी आई है।
  • एफ.आर.ए. के सन्दर्भ में वन विभाग द्वारा असत्य धरणाएं उनको विधिक  अधिकारों के उल्लंघन तक पहुंचाती हैं। उदाहरण स्वरुप, कुछ वन विभाग एफ.आर.ए. की धारा 4(2) के प्रावधानों  के विरुद्ध  ये विश्वास करते हैं कि संरक्षित क्षेत्रों (पी.ए.एस) में अधिकारों  का दावा एफ.आर.ए. के अंतर्गत नहीं किया जा सकता और यह कि एफ.आर.ए. सिंह अभ्यारण्य में लागू नही होता।
वास अधिकारों का दावा करने में जनजातीय समुदायों के समक्ष जो समस्याएँ पैदा होती है उनमे से कुछ निम्न प्रकार हैं -
  • अंतनिर्हित वास अधिकार  की परिभाषा एवं स्पष्टीकरण में स्पष्टता की कमी,
  • वास का अर्थ समझने में बहुल्यता, विशेष रूप से जब उसी विशेष क्षेत्र  में शामिल अन्य पी.बी.टी.जी. समूह से अन्य लोगों के प्रयोग अधिकार  उसमे शामिल हो,
  • यदि पी.बी.टी.जीस. की पारंपारिक वास सीमाएँ वन जीवन वास से मिलते जुलते हो, एवं
  • ऐसे समुदायों में जागरूकता की कमी कि किन शब्दों में ऐसे दावों को व्यक्त करें।
  • महिलाओं के अंदर दावा करने, प्रामाणिकता और उससे संबंधित एफ.आर.ए. के अंतर्गत दिए गये प्रावधान  से संबंधित नियमों के विषय में जागरूकता लाने में स्पष्ट रूप से बहुत कम प्रयास किया गया है।
  • एफ.आर.ए. के अंतर्गत जनजातियों द्वारा दाखिल किये गए दावे बिना किसी कारण बताए रद्द कर दिए जाते हैं अथवा अन्य पारम्पारिक वनवासी (OTFD) की परिभाषा एवं निर्भरता खंड के गलत स्पष्टीकरण पर आधरित हैं, अथवा केवल साक्ष्य की कमी के कारणवश अथवा जी.पी.एस. सर्वेक्षण की अनुपस्थति के कारणवश (एक कमी जिससे केवल यह अपेक्षित होता है कि दावा निम्न स्तरीय निकाय को वापिस निर्देशित कर दिया जाये) अथवा इस कारण कि भूमि गलत ढंग से गैर वन्य भूमि समझी जाती है अथवा केवल इसलिए कि वन अपराध  पावती ही केवल पर्याप्त साक्ष्य समझी जाती है।
  • दावेदारों को रद्द किये जाने की सूचना नहीं दी जाती और उनके अपील करने का अधिकार  उन्हें नहीं समझाया जाता और न ही इसका प्रयोग किया जाता है। (जनजातियों के बीच जागरूकता की आवश्यकता है ताकि वे ऐसी कार्य प्रणालियों के विरुद्ध  अपने विधिक  अधिकारों को सुरक्षित कर सकें)।
  • विकास परियोजनाओं के चलते बिना किसी उचित मुआवजे के अवैध  रूप से स्थानांतरित अथवा बेदखल किये गये लोगों के अधिकार  के सन्दर्भ में एफ.आर.ए. की धारा (31) (एम) बिल्कुल ही लागू नहीं की गयी है।
  • ग्राम सभाओं से प्रभावी परामर्श एवं खेती हर उपज में उनको मालिकाना अधिकार  की मान्यता की कमी।

अन्य विधिक समस्याएँ

  • जनजातियों और कुछ स्थितियों में भूमि ग्रहण और इस प्रकार विकास-जनक परियोजनाओं की स्थापना के विरुद्ध  विरोध  करने वाले अन्य लोगों के विरुद्ध  भी छल-कपट के साथ अपराधिक  आरोप लगाये जाते हैं। यह पाया गया है कि 2005 व 2012 के बीच 95% से अधिक  मुकदमें बेबुनियाद थे और दोषमुक्ति में समाप्त हुए।
  • अभ्यासिक अपराधी अधिनियम, 2000 के कारणवश गैर-अधिसूचित जनजातियों से संबंध रखने वाले लोग निरंतर पक्षपात, हिंसा एवं पुलिस अत्याचार का अनुभव करते है।
  • अंडमान निकोबार में, जरावा जनजाति यौन-शौषण की घटनाएँ भी झेलती है। यहां तक कि जनजाति के लोगों से डी.एन.ए. टेस्टिंग के लिए ब्लड सैंपल बिना उनकी सूचित सहमति के देने के लिए कहा जा चुका है।
  • योजना आयोग के एक अध्ययन से यह स्पष्ट हुआ है कि 43.6% पुनरुद्धारित बंधुआ मजदूर अनुसूचित जनजाति वर्ग से हैं। ये इसका संकेत देता है कि कई जनजातीय परिवार बंधुआ  मजदूरी में फंसाएं जाते है। बंधुआ  मजदूरी का मुख्य  कारण जो बताया गया है ऋण ग्रस्तता एवं आहार है।

शिक्षा से संबंधित समस्याएँ

भारत में जनजातियों से संबंधित शिक्षा की परिस्थिति भारत में सुधरी है परन्तु कुछ समस्याएँ अभी तक हैं। शिक्षा से संबंधित समस्याएँ निम्न प्रकार हैं :-
  • बड़ी संख्या  में विद्यालय हैं जिनमे न्यूनतम सुविधा यें भी नहीं हैं।
  • जहाँ न्याय संगत आधार  संरचना एवं विद्यार्थी पंजीकरण भी है वहां भी दूरी एवं निर्धनता के कारण जनजाति क्षेत्रों  में विद्यालयों में निरंतर उपस्थिति की समस्या है।
  • शिक्षकों की अनुपस्थिति भी बहुत है।
  • विद्यार्थियों के सीखने का स्तर बहुत निम्न है एवं कक्षा 10 तक पहुँचते-पहुँचते छोड़ने की दर बहुत अधिक  है। इसका एक संभव स्पष्टीकरण परिस्थितियों का सामना कर पाने मे जनजातीय विद्यार्थियों की विफलता भी है।
  • यहॉं पर उल्लेखनीय लैगिंक अंतर है। लड़कियों की शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए अधिक  ध्यान केन्द्रित करने और सामाजिक एकजुटता की आवश्यकता है।
  • जब कभी जनजातीय छात्रा दाखिला लेने में सफल  हो जाते हैं उन्हें वो भिन्न प्रकार से शर्मिंदा किये जाते हैं और उनका मनोबल तोड़ा जाता है। इसके कारणवश विद्यालय छोड़ने की दर बहुत बढ़ जाती है। उत्तर-पूर्व के जनजातीय छात्रों  को अपमानजनक नाम दिया जाना सर्वविदित है।
  • जनजातीय बालिकाओं हेतु आवासीय विद्यालय हैं जो अपने भ्रष्टता, घटिया देखरेख सुविधाओं एवं आवास करने वाली बालिकाओं के यौन शौषण के कारण अधिकतर समाचार में रहते हैं।
  • अधिकतर जनजातियाँ खानाबदोश होती हैं, उनके बच्चे सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली शिक्षा से वंचित रह जाते हैं।
  • भारत में अधिकतर जनजातीय समुदायों अपनी मातृभाषा रखते है परन्तु अधिकतर राज्यों में सरकारी/क्षेत्रीय भाषाएँ क्लास-रूम शिक्षा हेतु प्रयोग की जाती हैं जो जनजातीय बच्चों द्वारा विशेष रूप से शिक्षा के प्राथमिक स्तर पर समझी नहीं जाती हैं।
  • उन शिक्षकों को जो जनजातीय बच्चों को शिक्षा प्रदान करते है उन्हें स्वयं जनजातीय संस्कृति एवं भाषा से अवगत कराये जाने की आवश्यकता है, ताकि शिक्षा प्राप्त करना सरल हो सके। उदाहरणस्वरुप अधिकतर जिला अधिकारी गण बाहर के होने के कारणवश लोगों की भाषाएँ नहीं समझते हैं जैसे गोंडी एवं हलबी। विद्यालयों के शिक्षकगण भी इन भाषाओं को नहीं समझते है।
  • जनजातीय बच्चे संरचनात्मक विद्यालय कक्षों में अपनी प्रकृति से नजदीकी के कारण सहजता का आभास नहीं करते और इसके कारणवश तत्काल उपलब्ध  कराई जाने वाली औपचारिक शिक्षा में उनकी रुचि समाप्त हो जाती है।
  • जनजातीय लोगो में निरक्षरता का एक मुख्य  कारण माता-पिता एवं समुदाय का जनजातीय बच्चों की शिक्षा में कम रुचि लेना एवं जनजातीय क्षेत्रों  में घटिया स्तर के विद्यालयों का होना है। जनजातीय समुदाय अधिकतर शिक्षा के लाभों से अवगत नहीं होते।

स्वास्थ्य समस्याएँ

जनजातियों को न्याय दिलाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभानी है। राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण  को (SLSAs) जनजातीय समुदायों एवं सरकार तथा न्याय पालिका के बीच के फासले को खत्म करना है। राज्य विधिक  प्राधिकरण  को यह सुनिश्चित करना है कि विधि का शासन कायम हो।

राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण के ध्यान योग्य कदम

जनजातीय लोगों के मध्य विधि व्यवस्था में विश्वास की पुनः स्थापना एवं विधि के नियम की प्रभावकारिता मुख्य  महत्वपूर्ण तत्त्व है। एस.एल..एस.ए. को इन क्षेत्रों में गतिविधियों  की खोज अवश्य करनी चाहिए। एस.एल.एस.ए. निम्नांकित कदम अवश्य उठाये -

मुकदमेबाजी से संबंधित

  • उन्हें जनजातीय समुदायों से अधिवक्ताओं के एक अनन्य पैनल का गठन करना चाहिए जिनको अच्छी फीस का भुगतान किया जाना चाहिए।
  • जनजातीय लोगों को मुकदमेबाजी में योग्य विधिक सहायता दी जानी चाहिए एवं उपयुक्त मुकदमों में उनके पक्ष में वरिष्ठ अधिवक्ताओं को नियुक्त किया जाना चाहिए यहाँ तक कि विशेष फीस के भुगतान पर, ताकि जनजातीय लोगों के अधिकार  एवं हित सुरक्षित किये जा सकें।
  • निर्धन  जनजातीय लोगों को उनके समुदाय से बाहरी अधिवक्ताओं एवं न्यायाधीशों के भरोसे छोड़ कर न्याय पालिका हिंदी एवं अंग्रेजी में कार्य करती है। ये लोग वे हैं जिनकी न्याय तक पहुँच आवश्यक है एवं इसमे एस.एल.एस.ए. के द्वारा समर्थन दिया जाना चाहिए।
  • पैनल के अधिवक्तागण  जनजातीय लोगों को प्रक्रिया एवं विधि को स्पष्ट करते हुए उनका न्यायालयों में ईमानदारी से प्रतिनिधित्व अवश्य करें। ताकि व्यवस्था का अविश्वास समाप्त किया जा सके एवं न्यायालय की प्रक्रियाओं की बेहतर समझ पैदा हो।
  • पैनल के अधिवक्तागण  जनजातीय लोगों को भ्रम के क्षेत्रों  अथवा सामान्य न्यायालयों एवं ग्राम स्तर पर पारम्परिक ग्राम प्राधिकरण न्यायालयों के क्षेत्राधिकार की अति व्याप्तता को स्पष्ट करते हुए अवश्य सहायता करे एवं न्याय व्यवस्था की सरल कार्य प्रणाली में लोगों की सहायता करें।
  • पैनल अधिवक्तागण  कारागारों में अवश्य जाएँ एवं बिना जमानत दीर्घ अवधि की  कैद से निपटने के लिए कारागारों में विधिक सेवा क्लिनिक की स्थापना करें एवं उन मुकदमों पर नजर रखें जहाँ आरोप सि( न हो पाये होता कि कैद से जल्दी रिहाई हो सके।
  • पैनल अधिवक्तागण  अर्ध् विधिक  स्वयंसेवकों की सहायता से जनजातीय लोगों को उनकी अध्गिृहित जमीन का मुआवजा दिलाना आसान बनाएं एवं उनके पुनर्वास हेतु उनकी सहायता करें।
  • पी.एल.वी. की सहायता से जनजातीय क्षेत्रों  में मुद्दों, आवश्यकताओं, विधिक  जरूरत एवं शैक्षिक एवं स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्ध्ता की अवश्य पहचान की जानी चाहिए एवं उपयुक्त मामलो में न्यायिक निवारण की कार्यवाही की जानी चाहिए। ताकि उनकी समस्याओं एवं आवश्यकताओं की पहचान की जा सके एवं उनको विश्वास दिलाने के लिए उनको उनके वास्तविक विधिक  एवं अन्य आवश्कताओं एवं अधिकारों हेतु योग्य सहायता एवं सेवाए दी जा सके।
  • जहाँ कोई जनजातीय व्यक्ति किसी विधि के न्यायालय में अभियोजन का सामना कर रहा है वहां उसकी पहचान की जानी चाहिए एवं उसके विरुद्ध  कार्रवाई के आरम्भ से विधिक सेवा प्राधिकरण  के द्वारा समुचित विधिक  सहायता दी जानी चाहिए अर्थात उसके विरुद्ध  पूछताछ के समय से।
  • एस.एल.एस.ए. विधिक सेवा क्लिनिक अवश्य खोले जहां कि जनजातीय अधिवक्तागण  का सुविधा  पूर्वक जाना सुगम हो।
  • एस.एल.एस.ए.बहु उपयोगी वाहन का अवश्य प्रयोग करें ताकि कम आबादी वाले क्षेत्रों  में पंहुचा जा सके अर्थात न केवल जानकारी फैलाने  के लिए बल्कि जनजातीय लोगों को शीघ्र विधिक  सहायता उपलब्ध  करने के लिए जिनके अपराधिक , दीवानी, राजस्व अथवा वन अधिकारों के मुद्दे हो सकते हैं।
  • एस.एल.एस.ए. वन विभाग जैसे सरकारी विभागों से समन्वय स्थापित करे ताकि प्राकृतिक वास दावों एवं मुआवजा दावों का मोबाइल लोक अदालतों के द्वारा निपटारा किया जा सके।
  • दीवानी एवं फौजदारी  मामलों में उच्च न्यायालय की उसकी रिट क्षेत्राधिकारके अंतर्गत उच्च न्यायालय जाने हेतु जनजातीय लोगों को शीघ्र विधिक  सहायता दी जानी चाहिए। उच्च न्यायालय विधिक सेवा समितियां उन समर्पित अधिवक्तागणों को अवश्य पैनल पर रखे जो स्वयं जनजातीय हैं अथवा जिन्हें जनजातीय मुद्दों की अच्छी समझ हैं एवं जो जनजातीय लोगो से व्यक्तिगत रूप से बातचीत कर सकते हैं।
  • जब भी आवश्यकता हो माननीय कार्यकारी चेयरमैन एस.एल.एस.ए. के अनुमोदन से सामाजिक न्याय मुकदमे आरम्भ किये जाएँ।

अर्धविधिक स्वयंसेवक 

  • प्रत्येक जिला विधिक सेवा प्राधिकरण  सांखयकीय एवं अन्य सरकारी विभागों की सहायता से जिलों के उन क्षेत्रों  की पहचान करें जहाँ जनजातीय आबादी हैं एवं अर्धविधिक स्वयंसेवकों के द्वारा उन तक पहुंचें।
  • जनजातीय लोगों का विश्वास प्राप्त करने के लिए,  प्रत्येक ऐसे समुदाय की समस्याएं जानने हेतु एवं जानकारी कार्यक्रमों के दौरान प्रभावकारी तरीके से उनसे सम्पर्क स्थापित करने के लिए यह आवश्यक हैं कि अर्धविधिक स्वयंसेवकों का ऐसे जनजातीय लोगों के मध्य से ही चयन किया जाए। एस.एल.एस.ए., डी.एल.एस.ए. के पूर्णकालिक सचिव के सीधे अनुभवी परामर्श एवं नियंत्रण  के अंतर्गत ऐसे समुदायों से अर्धविधिक स्वयंसेवकों (पी.एल.वी.) के अनन्य पैनल अवश्य तैयार करे।
  • ऐसे पी.एल.वी. को उनकी भूमिका के लिए उचित विधि से प्रशिक्षण दिया जाए ताकि वे अग्र सक्रिय रूप से जनजातीय लोगों तक पहुँच सकें एवं वे उन जनजातीय समुदायों में हर समय एक हिताभिलाषी के रूप में पहचाना जाए जिनकी सेवा हेतु उनको कार्य सौंपा गया हैं।
  • एस.एल.एस.ए., पी.एल.वी.के द्वारा अनपढ जनजातीय लोगों को सरकार के द्वारा चलाई जा रही विभिन्न योजनाओं का लाभ प्राप्त करने हेतु पफार्म भरने एवं आवेदन प्रस्तुत  करने के लिए विधिक  सहायता सहित उनकी ऐसे लाभ प्राप्त करने में सहायता करें।
  • विधिक सेवा प्राधिकरण  जनजातीय समुदायों के बीच अर्ध् विधिक  स्वयंसेवकों की सहायता से स्वास्थ्य सहायता उपलब्ध  कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है।अर्धविधिक  स्वयंसेवकों एवं स्थानीय विधिक सेवा प्राधिकरण  की सहायता से जरूरतमंद व्यक्तियों की पहचान की जा सकती है। ऐसे जनजातीय लोगो को उचित स्वास्थ्य योजनाओं के लाभों के साथ-साथ स्वास्थ्य सहायता एवं दवाएं उपलब्ध  करने में आसानी लाई जाये।
  • जब भी विद्यालयों, अध्यापकों की अनुपस्थिति एवं जनजातीय बच्चों की प्रताड़ना जैसे मुद्दे हों, जैसाकि इस योजना के भाग-1 में सूचित है तो पी.एल.वी. सम्बन्ध्ति प्राधिकरणों  को सूचित करने में जनजातीय लोगों की आवाज बने।
  • पी.एल.वी., तस्करी के पीड़ितों की पहचान हेतु मानव तस्करी के मामलों में एवं पीड़ित मुआवजा प्राप्त करने हेतु उचित कार्रवाई करने में एवं विभिन्न पुनर्वास योजनाओं तक पहुँच बनाने में उपयोगी बन सकते हैं।
  • पी.एल.वी., तस्करी किये गये बच्चों की अवश्य सहायता करें जब उनको बचाया जाता है एवं शिशु कल्याण समितियों सी.डब्लू.सी.द्ध के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। वे पीड़ितों के परिवारों को खोजने में सी.डब्लू.सी. की अवश्य सहायता करे।
  • जब पीड़ितों की न्यायालय में गवाही हो तो पी.एल.वी.पीड़ितों का साथी के रूप में सहयोग करें।
  • पी.एल.वी. को जनजातीय लोगों एवं पैनल अधिवक्ताओं के मध्य एक मध्यस्थ का काम करना चाहिए एवं जनजातीय लोगों एवं अधिवक्ताओं दोनों की सहायता करनी चाहिये ताकि पीड़ितों का केस न्यायालय के द्वारा प्रभावकारी तरीके से समझा एवं सुना जा सके।
  • पी.एल.वी. सरकारी विभागों एवं जनजातीय लोगो से भी अवश्य जुडे रहें ताकि जनजातीय लोगों के लिए राशन एवं भोजन, उन तक पहुंचना सुनिश्चित हो सके यहाँ तक कि जब वे राज्यों में दूर-दराज एवं कम आबादी वाले क्षेत्रों  में रहते हों।
  • जनजातीय लोगों के पास अधिकतर भूमि का दस्तावेजी सबूत उपलब्ध  नहीं होता। ऐसे मामलो में जनजातीय लोगों को उचित मुआवजा एवं पुनर्वास प्राप्त करने के लिए विधिक  सहायता की आवश्कता होती है। पी.एल.वी. समस्त दस्तावेजों एवं सबूतों को एकत्रा करने में जनजातीय लोगों की सहायता करे ताकि विस्थापित जनजातीय लोग उचित रूप से पुनर्वासित किये जा सके।
  • पी.एल.वी. कारागार जाएँ एवं बंदियों से उनके मुकदमों के बारे में बात करें एवं डी.एल. एस.ए. के पूर्णकालिक सचिव को उनके बारे में रिपोर्ट करें ताकि उनको जमानत पर छुडवाने अथवा उनके मुकदमों की जल्दी सुनवाई के लिए तुरंत कार्यवाही की जा सके।

जानकारी


  • जनजातीय क्षेत्रों  में विधिक  जानकारी साधरण तरीके की जानकारी कार्यक्रमों से भिन्न होनी चाहिए। इस संबंध में दृश्य-श्रव्य साध्न अधिक  उपयोगी होंगे। नृत्य नाटक इत्यादि जैसे सांस्कृतिक कार्यक्रम के आयोजन के द्वारा जिसमें जनजातीय लोग भी शामिल हों जानकारी को दिया जाना सुनिश्चित किया जाना चाहिये। उनको प्रभावकारी तरीके से सन्देश देने के लिए ऐसे जनजातीय लोगों के लोक गीतों एवं नृत्यों का उपयोग किया जा सकता है। जनजातीय लोगों में जानकारी कार्यक्रम उन व्यक्तियों के द्वारा चलाये जाने चाहिए जिनको उनकी समस्याओं एवं समाधन के बारे में पूरी जानकारी हो।
  • जनजातीय लोगों के बीच वन विधि एवं विधि के प्रावधानों  के उल्लंघन के परिणामों के बारे में विधिक  जानकारी फैलाने  की आवश्कता हैं।
  • एस.एल.एस.ए. शिक्षा के लाभों, उनके अधिकारों एवं विभिन्न सरकारी योजनाओं एवं आधुनिक  तकनीक के लाभों के अंतर्गत पात्रता  के बारे में जनजातीय समुदाय को जागरूक करने के लिए जनजातीय क्षेत्रों  में सघन विधिक  जानकारी आयोजित करें जो उनके पेशे से जुड़े कार्य के सुधार में भी सहायता कर सकता है।
  • जनजातीय समुदाय को सूचित किया जाना चाहिए कि उनके बच्चों की शिक्षा, उनका भविष्य सुरक्षित कर सकती है क्योंकि ऐसे बच्चे लोक अथवा प्राइवेट नौकरी पा सकते हैं जहाँ आरक्षण लागू है।
  • जनजातीय बच्चों तक पहुँचने हेतु जनजातीय वर्चस्व के क्षेत्रों  में विद्यालय विधिक  साक्षरता क्लब आरम्भ किये जाने चाहिए ताकि उनका उत्साह बढाया जा सके कि वे विद्यालय में रहे व दूसरी ओर और अन्य विद्यार्थियों एवं अध्यापकों को जनजातीय बालकों की विशेष आवश्कता के बारे में संवेदनशील बनाया जा सके।
  • सरकारी एजेंसियों एवं एन.जी.ओ. की सहायता से एस.एल.एस.ए. दृश्य-श्रव्य विधि के द्वारा एवं उनको खेती के कार्य के लाभ हेतु आधुनिक  तकनीक के व्यवहारिक प्रदर्शन दिखाकर भी प्रशिक्षण आयोजित करें।
  • जनजातीय क्षेत्रों में क्षेत्र  में कार्यरत एनजीओ के साथ सुरक्षित पेयजल, पोषण एवं गर्भवती स्त्री  की देखभाल के लाभों के बारे में बताने के लिए स्वास्थ्य जानकारी कार्यक्रम आयोजित किये जाने चाहिए।
  • एस.एल.एस.ए. को भाषायी भेद को कम करने के लिए ग्राम में एक सामुदायिक रेडियो की स्थापना जैसे अन्य कदम उठाने चाहिए।

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