आदिवासी संस्कृति, सभ्यता, परम्परा, भाषा शैली, कला-कौशल को समझने के लिए उसके ऐतिहासिक पहलुओं पर जाना होगा तथा साहित्यों में इनके दर्शन को ढूँढने होंगे. किन्तु आदिवासियों के साहित्यों में इनके वास्तविक गूढ़ दर्शन दुर्लब हैं. कुछ साहित्यकारों ने आदिवासियों के प्राचीन इतिहास को “गोंडवाना” का इतिहास कहा है. गोंडवाना, आदिवासियों के निवास स्थान का प्राचीन भौगोलिक क्षेत्र, भू-भाग का बोध कराता है. इस भू-भाग में रहने वाले लोगों एवं उनके जीवन दर्शन (कोयापुनेम) को हमें व्यापक रूप में समझने की आवश्यकता है.
देश का आदिवासी समाज एवं समुदाय "गोंडवाना भू-भाग", "गोंड" एवं उनके "कोयापुनेम" के व्यापक सांस्कृतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक, भाषिक दर्शन को केवल "गोंड" समुदाय की ओर इंगित करते हुए महसूस करना, कि यह तो केवल गोंड जाति के रीति रिवाज, अंग, स्थान को प्रदर्शित करता है, जो लोग यह समझते हैं कि हम तो उराँव, भील, हो, संथाल, मुंडा, बैगा, असुर, कोया, कोलाम, कोडकू, मीणा, परधान, हल्बा-हल्बी, ............ हैं, हमें गोंडवाना भू-भाग, गोंड और उनके कोयापुनेम से कोई वास्ता नहीं हैं, तो यह उनकी बहुत बड़ी भूल होगी. जिस दिन देश का आदिवासी समाज एवं समुदाय "गोंडवाना भू-भाग", "गोंड" एवं "कोयामुनेम" का वृहद एवं वास्तविक स्वरुप एवं दर्शन को समझ जाएगा, उस दिन देश के आदिवासी समाज एवं समुदायों के अन्दर जाति, रीति, नीति, संस्कृति एवं दर्शन के प्रथक्कीकरण का बोध समाप्त हो जाएगा.देश में अनेक आदिवासी/गैर आदिवासी लेखक/लेखिका/साहित्यकार/ इतिहासकार आदिवासी समाज, संस्कृति, भाषा शैली, रहन सहन, उत्पत्ति एवं विकास पर शोधपूर्ण साहित्य सृजन का कार्य कर रहे हैं, किन्तु देखने में आता है कि गिने-चुने साहित्यकार ही गोंडवाना भू-भाग, गोंडवाना के निवासियों और उनके एतिहासिक पुनेम अर्थात दर्शन को प्रस्तुत करने में सार्थक प्रयास कर रहे हैं. अधिकतर साहित्यकारों में इसका अभाव दिखाई दे रहा है. वर्तमान लेखकों का दर्शन केवल आदिवासियों के छोटे-छोटे समुदायों के दर्शन तक ही सीमित हो रहे हैं. गोंडवाना भू-भाग के आदिवासियों के आदिम प्रकृतिसम्मत एवं विशुद्ध वैज्ञानिक स्वरुप में विकसित सर्वव्यापक पुनेम अर्थात दर्शन को संसार के मानव समाज द्वारा आदिवासियों से ही ग्रहण किये गए. इसे क्षेत्र विशेष, समुदाय विशेष एवं सीमित क्षेत्र के लिए परिष्कृत कर प्रस्तुत किया जा रहा है, जो उचित नहीं है. यदि आदिवासियों के पुनेम को परिष्कृत करना है तो कोई भी आदिवासी लेखक सम्पूर्ण गोंडवाना भू-भाग, गोंड और पुनेम को परिष्कृत करे, तभी देश के समस्त आदिवासियों के वर्तमान अस्तित्व और उत्थान के लिए हमारा साहित्य सार्थक साबित हो सकता है. यदि कोई समुदाय यह कहता है कि वह उराँव है, उसकी भाषा कुडुख है, कोई कहता है कि वह हल्बा है, उसकी भाषा हलबी है, कोई कहता है कि वह संथाल है उसकी भाषा संथाली है, कोई कहता है कि वह गोंड है और उसकी भाषा गोंडी है, कोई कहता है कि वह भील है उसकी भाषा भिलारी है ............ आदि. इससे पहले यह समझ लेना उचित होगा कि यह सब समुदाय आदिवासी समाज के अंग हैं. आदिवासी समाज से पृथक होकर कोई भी "समुदाय" आदिवासी समाज की परिभाषा को पूर्ण नहीं करता है, बल्कि ऎसी स्थिति में साहित्य, सामाज की परिभाषा को तोड़ कर बिखेर देता है. देश के वर्ग विशेष द्वारा बनाई गई वर्ण और जाति व्यवस्था इसके सबसे महत्वपूर्ण उदाहरण है. दूसरों ने जो रास्ता हमें तोड़ने के लिए बनाई उसे बुद्धिजीवी वर्ग सहर्ष स्वीकार कर उसी रास्ते पर बढ़ रहे हैं. इस स्थिति के कारण क्षेत्रीय साहित्यकार और उनके साहित्य समाज को मार्गदर्शन करने के उत्साह में सम्पूर्ण आदिवासी समाज को टुकड़ों में तोड़ने के लिए उत्तरदाई प्रतीत हो रहें हैं.
समाज के एतिहासिक पृष्ठभूमि में उसके मूलतः चार स्तम्भ बताये गए हैं, जिसपर पूरा समाज टिका होता है. हमारा समाज अनेक छोटे-बड़े समुदायों से मिलकर बना है, जिन्हें "आदिवासी" कहा जाता है. आदिवासी शब्द आदिकाल से रहने वाले समुदायों के केवल समूह/समाज को प्रतिबिंबित करता है, उसके रहने के परिक्षेत्र तथा भू-भाग को नहीं. यदि आज आदिवासी समाज सम्पूर्ण विश्व में फैला हुआ है तो आदिकाल में उसका रहने का कोई निश्चित परिक्षेत्र/स्थान/भू-भाग भी रहा. समाज के रहने का परिक्षेत्र/स्थान/भूभाग का होना समाज का प्रथम स्तम्भ है. वह प्रथम स्तम्भ आज के आदिवासियों (गोंडवाना के निवासियों) का भू-भाग "गोंडवाना भू-भाग" है, जिसके अंतर्गत भारत तथा समीपवर्ती देश आस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमरीका, ऐंटार्कटिका, दक्षिणी अफ्रीका और मैडागास्कर आते हैं. इस आदिम निवासियों/आदिवासियों के विस्तृत निवास क्षेत्र/भूभाग को इतिहास भी चिन्हांकित करता है. इस भू-भाग में रहने वालों की अपनी मूल भाषा "गोंडी" है, जिसे भाषाविद और इतिहासकरों ने विश्व के विविध भाषाओं की जननी माना है तथा इस भू-भाग में रहने वालों की पहचान है. एतिहासिक बोली-भाषा इस आदिवासी समाज का दूसरा स्तम्भ है. आदिवासी समाज की संस्कृति, रीति-रिवाज आज भी दुनिया के मानव समाजों से भिन्न है. यदि समाज का अपना परिक्षेत्र/भू-भाग है, उसकी अपनी बोली-भाषा है तो निश्चित ही समाज की अपनी संस्कृति विशुद्ध प्राकृतिक, समृद्धिपूर्ण संस्कृति भी है, जिसे आज के आधुनिक परिवेश में भी आदिवासी संजोकर रखा है. उनकी यह "संस्कृति" समाज का तीसरा स्तम्भ है तथा समाज का चौथा स्तम्भ उसका अपना "साहित्य" होता है. विद्वानों ने साहित्य को समाज का दर्पण कहा है, जिसके द्वारा समाज की वास्तविक भूमिका के चेहरे को प्रदर्शित किया जाता है. यह चार स्तम्भ समाज को सदियों-सदियों तक एकरूपता में बांधे रखता है, जिसके बल पर समाज विकास करता है और आगे बढ़ता है.
अब सवाल यह उठा है कि आदिवासी समाज का सबसे वृहद, संपन भू-भाग रहा, सदियों से उसकी अपनी बोली भाषा और लिपि भी रही, जिसके माध्यम से विचारों का आदान-प्रदान, व्यापार विनिमय करते रहे, अपनी प्राकृतिक एवं समृद्धिपूर्ण संस्कृति रही, फिर भी हमें अपनी समृद्धि को बचाए रखने और विकास की ओर आगे बढ़ने के लिए किसने रोका ? समाज अब तक आगे क्यों नहीं बढ़ा ? इसपर चिंतन कर इसके गूढ़ को रहस्य को सुलझाने का दायित्व, आज देश के आदिम समाज के लिए चिन्तनशील साहित्यकार, पढ़े-लिखे और युवा पीढ़ी पर है.
यदि हम अपने समाज के इन चारों स्तंभों पर चिंतन, मनन और अध्ययन करें और आधुनिक परिवेश को देखते हुए हमें प्रक्रियागत आगे बढ़ने से रुकावट पैदा करने वाला और कौनसा महत्वपूर्ण तथ्य है ? तब हमें समझमे आता है कि वह है हमारा साहित्य. आदिवासियों के मूल साहित्य का अभाव, उसकी विकास की भूमिका को सबसे ज्यादा क्षति पहुंचाया.
गोंडवाना भू-भाग में आये सभी मानव समाज ने आदिम समाज की मूल संस्कृति को अपनाकर अपने जीवनशैली एवं विचारधारा के अनुरूप परिवर्तित किया, साहित्य निर्माण किया और अपने साहित्य के माध्यम से समाज को धार्मिक मार्गदर्शन प्रदान कर एक रूप में पिरोकर रखा. समाज के विकास के लिए नीतियां बनाई, वर्ण और जाति व्यवस्था बनाकर मानवों में भेद पैदा कर अपना वर्चस्व बनता गया, चाहे वे नीतियाँ सामाजिक विषंगत कूट नीति तथा आज की स्थिति में घोर आपत्तिजनक ही क्यों न हो. उन्ही नीतियों, धार्मिक साहित्यों, कोरी कल्पित किस्से कहानियों को आधुनिक समाज के पांचवे स्तम्भ के रूप में माने जाने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया के लोकलुभावन प्रस्तुतिकरण के बदौलत आगे बढ़ते गए और उनकी कारवां बनती गई. उनकी इन काल्पनिक धार्मिक और मनभावन किस्से कहानियों को पाठ्यक्रमों में शामिल कर युवा पीढ़ी की मानसिकता प्रभावित करने के लिए अपने नीतिगत धार्मिक शिक्षा के नाम पर लादे गए. इन सबको पढ़कर और सुनकर आदिवासी समाज की भावी पीढ़ी भी अपना रुख दूसरों की साहित्य और दर्शन की ओर मोड़ लिया. यह आदिवासी समाज के लिए सबसे बड़ा घातक सिद्ध हुआ.
आदिवासी समाज आज भी जोर देकर कहता है कि वह सदियों से प्रकृति और अपने पुरखों के पूजक रहा है और है. वह प्रकृति पूजा को अपना धर्म मानता रहा है और है. वह सदियों से अपनी प्रकृति सम्मत सर्वोच्च मानव संस्कृति और सभ्यता का वाहक रहा है और है. वह अपनी बोली भाषा पर सदियों से अटल रहा है आज भी है, किन्तु समाज का धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक स्व साहित्य और साहित्यों में एकरूपता तथा प्रचार-प्रसार के अभाव में धीरे-धीरे सबकुछ विलुप्त होता जा रहा है. साहित्य की कमी ने हमारे सारे समृद्धि और विकास के रास्तों को अवरुद्ध कर दिया और दूसरों की साहित्यिक तथा धार्मिक अंधानुकरण ने गुलाम.
आज का परिवेश प्रतियोगिता का है. तथ्यपरख, खोजपूर्ण साहित्य लिखने और देखने पर विश्वास करने का है. तर्कसंगत, एकतापूर्ण विवेचनाओं का है, किन्तु लिखेगा कौन ? इस गोंडवाना की धरा पर आदिम समाज की सामाजिक उन्नति, धार्मिक, सांस्कृतिक सभ्यता, आर्थिक, व्यापारिक समृद्धी के जीवंत एवं निर्जीव तथ्य, पुरातात्विक अवशेष- गढ़, किले, महल, ताल-तलैया आज भी समाज को जगाने के लिए सदियों से आंसू बहा रहे हैं. किन्तु समाज के गिने चुने पुरातत्व विद, इतिहासकार, साहित्यकारों ने उनकी चीख पुकार सुन पाए हैं और अपना सम्पूर्ण गोंडवाना का साहित्य सृजन करने और जन जन को पहुंचाने का बीड़ा उठाया है. मै उन्हें सादर नमन करता हूँ. आज समाज के युवा पीढ़ी से समाज अपेक्षाएं रखता है कि वह आधुनिक समाज में पांचवे स्तम्भ के रूप में विकसित इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया को गोंडवाना भू-भाग के निवासियों, वृहद "गोंडवाना भू-भाग", "गोंड" एवं "कोयामुनेम" के ऐतिहासिक, समृद्धिपूर्ण, प्रकृतिक सम्मत धार्मिक दर्शन, रीति, नीति एवं परिष्कृत संस्कृति के प्रदर्शन का सशक्त माध्यम बनाया जाए.
सम्पूर्ण आदिवासी समाज तथा साहित्यकारों से करबद्ध निवेदन करते हुए मेरा मत है कि देश के सभी क्षेत्रीय साहित्यों में उल्लिखित धार्मिक, सांस्कृतिक, आदिम सभ्यता, रीति-नीति तथा वीरगाथाओं का संकलन कर एकीकरण व समाहीकरण करते हुए, गोंडवाना भू-भाग के एक समग्र साहित्य के रूप में पिरोया जाए, ताकि गोंडवाना भू-भाग में रहने वाले समस्त आदिवासी अपने आदिम पूर्वजों के समृद्ध भू-भाग, बोली-भाषा, धर्म, संस्कृति, सभ्यता, व्यापार विनिमय तथा ऐतिहासिक विरासत की वीर गाथाओं को पढ़कर, सुनकर, देखकर, जानकर तथा अपने जीवन में उतार कर, आगे आने वाली पीढ़ी हर परिस्थितियों में गर्व से एक साथ खड़े होकर गोंडवाना का गोंड कहने का सामर्थ्य हासिल कर सके.
आदिवासियों का अपना भू-भाग, आदिम संस्कृति एवं सभ्यता, उनकी बोली-भाषा और लिपि, उनका अपना साहित्य तथा वर्तमान परिवेश में इन्हें वास्तविक रूप में सम्मानजनक एवं रुचिकर माध्यमों (इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया) से मानव समाज में प्रस्तुतीकरण के अभाव अभी भी समाज में बना हुआ है. किन्तु अब समाज के जागृत समाज सेवियों, लेखकों, साहित्यकारों, मीडिया कारों द्वारा विविध पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से आदिम समाज के विभिन्न सामुदायिक परिदृश्यों तथा उनके सामाजिक विकास हेतु विभिन्न संवैधानिक नीतियों, निर्देशनों का सक्षम रूप में प्रस्तुतिकरण का कार्य किया जा रहा है. इनमे सर्वप्रथम वर्तमान में छत्तीसगढ़ से प्रकाशित मासिक पत्रिका “गोंडवाना दर्शन” (१९८३ से निरंतर प्रकाशित), राजस्थान से प्रकाशित मासिक पत्रिका “अरावली उद्घोष” (१९८४ से निरंतर प्रकाशित), छत्तीसगढ़ से प्रकाशित मासिक पत्रिका “आदिवासी सत्ता” (२००४ से निरंतर प्रकाशित) तथा पिछले १२ वर्षों से निरंतर प्रकाशित आदिवासियों से संबंधित एक मात्र रास्ट्रीय साप्ताहिक अखबार “दलित आदिवासी दुनिया” प्रमुख हैं. इन पत्र-पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित आदिवासियों के ह्रदय विदारक वाणी को भी समझने की जरूरत है. समाज के सभी पढ़े-लिखे व्यक्तियों, युवाओं को जागृत होकर अध्ययन करने की ही नहीं बल्कि उन तथ्यों पर वास्तविक चिंतन कर, संगठित होकर आगामी कार्यरूप की ओर अग्रसर होने की आवश्यकता है.
by dilipsingh patre
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